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तीसरा उद्देशक
कृष्णवर्ण चर्म का ग्रहण करते हुए भी शुषिर के ग्रहण का वर्जन करे तथा बहुबंधन कृत्स्न की भी प्रयत्नपूर्वक वर्जना करे।
३८६९.दोरेहि व वज्झेहि व, दुविहं तिविहं व बंधणं तस्स । अणुमोदन कारावण, पुव्वकतम्मिं अधीकारो ॥ डोरों से अथवा चर्म-रज्जु से दो प्रकार या तीन प्रकार से उस चर्म का बंधन होता है अर्थात् दो या तीन बंधन वाला चर्म अनुज्ञात है। कृत्स्न या अकृत्स्न चर्म स्वयं साधु न करे, न कराए और करने वाले का अनुमोदन भी न करे। जो पूर्वकृत है उसे ग्रहण करे, उसका अधिकार हैप्रयोजन है।
३८७०. खुलए एगो बंधो, एगो पंचंगुलस्स दोण्णेते । खुलए एगो अंगुट्ट बितिय चउरंगुले ततितो ॥ खुलक में एक बंध होता है। पांचों अंगुलियों का एक बंध होता है। ये दो बंध होते हैं। जहां तीन बंध होते हैं वहां एक बंध खुलक का, एक बंध अंगुष्ठ का और एक बंध चारों अंगुलियों का ।
३८७१. सयकरणे चउलहुगा, परकरणे मासियं अणुग्घायं ।
अणुमोदणे वि लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ यदि स्वयं कोई चर्म का ( उपानह आदि) करता है, उसे चतुर्लघु, कराने पर मासिक अनुद्घात और अनुमोदन में मासलघु तथा सर्वत्र आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३८७२.अकसिणचम्मग्गहणे, लहुओ मासो उ दोस आणादी । बितियपद घेप्पमाणे, अट्ठारस जाव उक्कोसा ॥ सूत्र में अनुज्ञात होने पर भी अकृत्स्नचर्म का ग्रहण नहीं कल्पता । यदि ग्रहण किया जाता है तो लघुमास का प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अपवाद पद में ग्रहण भी विधिपूर्वक होना चाहिए। यदि अकृत्स्न चर्म ग्रहण किया जाए तो दोनों उपानहों के उत्कृष्टतः अठारह खंड करे ।
कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अकसिणाई चम्माई धारित्तए वा
परिहरित्तए वा ॥
(सूत्र ६)
३८७३.अकसिणमट्ठारसगं, एगपुड विवण्ण एगबंधं च । तं कारणम्मि कप्पति, णिक्कारण धारणे लहुओ ॥ वह अकृत्स्न चर्म १८ खंड वाला, एक पुट, विवर्ण
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और एक बंध वाला हो। ऐसा चर्म कारण में कल्पता है, बिना कारण धारण करने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है।
३८७४. जइ अकसिणस्स गहणं, भाए काउं कमेण अट्ठदस । एगपुड- विवण्णेहि य, तहिं तहिं बंधते कज्जे ॥ यदि अकृत्स्नचर्म का ग्रहण किया जाता है तो उसके क्रमशः अठारह भाग कर, एक पुट, विवर्ण और एक बंध वाले उनको पैर में जहां-जहां आबाधा हो वहां-वहां कार्यवश बांधा जाता है।
३८७५. पंचंगुल पत्तेयं, अंगुट्ठमज्झे य छट्ट खण्डं तु ।
सत्तममग्गतलम्मी, मज्झऽट्ठम पहिया णवमं ।। अठारह खंड कैसे होते हैं ? पैर की प्रत्येक अंगुली का एक-एक खंड, अंगुष्ठ के मध्य छठा खंड, अग्रतल में सातवां खंड, मध्यतल में आठवां और पार्ष्णिका में नौवां । इस प्रकार एक पैर के उपानह के नौ खंड हुए। दूसरे पैर के उपानह के भी नौ खंड करने पर सर्व खंड अठारह हुए । ३८७६. एवइयाणं गहणे, मासो मुच्चंति होति पलिमंथो ।
बितियपद घेप्पमाणे दो खंडा मज्झपडिबंधा ॥ इतने खंडों के ग्रहण करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त आता है तथा इतने खंड करने पर सूत्रार्थ का परिमंथ होता है। अपवाद पद में चर्म ग्रहण करना पड़े तो मध्य से प्रतिबद्ध दो खंड करे ।
३८७७.पडिलेहा पलिमंथो, णदिमादुदए य मंच - बंधते । सत्थफिडणेण तेणा, अंतरवेधो य डंकणता ॥ अठारह खंड करने पर प्रत्युपेक्षा का परिमंथ होता है। सार्थ के साथ जाता हुआ मुनि यदि नदी को पार करना चाहे तो उन अठारह स्थानों को खोलने तथा पार करने पर पुनः उन्हें बांधने में जो समय लगता है, उतने समय में सार्थ आगे चला जाता है और वह सार्थ से बिछुड़ जाता है। वह चोरों द्वारा उपद्रुत होता है। अनेक खंडों के बीच से कांटों द्वारा बींधा जाता है और पैरों में घाव हो जाते हैं।
३८७८. तज्जायमतज्जायं, दुविहं तिविहं व बंधणं तस्स । तज्जायम्मि वि लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥ खंडद्वय में दो प्रकार का बंध होता है-तज्जातबंध और अतज्जातबंध। तज्जातबंध देने पर भी मासलघु प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। तज्जातबंध का अर्थ है- उसी चर्म का बंध और अतज्जातबंध का अर्थ है-डोरी आदि से बांधना ।
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