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________________ तीसरा उद्देशक = ४०३ ३९१५.न लभइ खरेहिं निरं, अरतिं च करिति से दिवसतो वि। उज्झाइगं व मण्णति, थूलेहिं अभावितो जाव॥ जिसे स्थल चीवरों में नींद नहीं आती है और दिन में भी अरति होती है, उसको धारण करने में जुगुप्सा होती है और जो आज तक स्थूल चीवरों से भावित नहीं हुआ है उनके लिए भावकृत्स्नवस्त्र अनुज्ञात हैं। ३९१६.ओमा-ऽसिव-दुद्वेसू, सीमढेऊण तं असंथरणे। गच्छो नित्थारिज्जति, जाव पुणो होति संथरणं॥ अवमौदर्य, अशिव तथा राजद्विष्ट आदि स्थिति में यदि गच्छ का असंस्तरण होता है तो मूल्यवान् वस्त्र को 'सीमढेऊण' बेचकर गच्छ का निस्तारण करे, तब तक जब तक पुनः संस्तरण की स्थिति न हो। ३९१७.माणाहियं दसाधिय, एताइं पडंति दव्वकसिणम्मि। तस्सेव य जो वण्णो, मुल्लं च गुणो य तं भावे॥ क्षेत्रकृत्स्न और कालकृत्स्न में जो वस्त्र मानाधिकप्रमाणातिरिक्त हो, जो वस्त्र किनारीयुक्त हो-ये सारे द्रव्यकृत्स्न में समाविष्ट होते हैं। उनमें जो वस्त्र कृष्ण आदि वर्णवान् है, अठारह रूपक का मूल्य वाला है तथा जो मृदुत्व आदि गुणों से सहित है, वह वस्त्र भावकृत्स्न में समाविष्ट होता है। ३९१९.तम्मि वि सो चेव गमो, उस्सग्ग-ऽववादतो जहा कसिणे। भिण्णग्गहणं तम्हा, असती य सयं पि भिंदिज्जा। अभिन्न में भी उत्सर्ग और अपवाद विषयक वही प्रकार है जो कृत्स्न विषय में है। इसलिए भिन्न वस्त्र का ग्रहण करना चाहिए। यदि भिन्न प्राप्त न हो तो स्वयं उसका भेद करे अर्थात् जितना प्रमाणातिरिक्त हो उसका भेद कर उसे प्रमाणयुत बना दे। ३९२०.पुणरुत्तदोसो एवं, पिट्ठस्स व पीसणं णिरत्थं तु। कारणमवेक्खति सुतं, दुविहपमाणं इहं सुत्ते॥ शिष्य ने पूछा-इसमें पुनरुक्तदोष आता है। पीसे हुए को पुनः पीसना निरर्थक होता है। आचार्य कहते हैं-यह सूत्र कारण और अपेक्षा से विहित है। प्रस्तुत सूत्र में दो प्रकार के प्रमाण हैं-गणनालक्षण और प्रमाणलक्षण अर्थात् कितना और किस प्रमाण का ग्रहण करना है। ३९२१.तम्हा उ भिंदियव्वं, केई पम्हेहि अह व तह चेव । लोगते पाणादीविराधणा तेसि पडिघातो॥ अभिन्न वस्त्र को धारण करने से पूर्व-सूत्रोक्त दोष होते हैं, इसलिए प्रमाणातिरिक्त वस्त्र का स्वयं भेदन करे। कुछेक शिष्य कहते हैं-'वस्त्रों को फाड़ने पर सूक्ष्मपक्ष्म उड़कर लोकान्त तक चले जाते हैं। उनसे प्राणियों की विराधना होती है। अतः जैसा प्राप्त हो वैसा ही ग्रहण करना चाहिए, धारण करना चाहिए।' इस प्रकार कहने वाले शिष्यों का प्रतिघातनिराकरण करना चाहिए। ३९२२.सहो तहिं मुच्छति छेदणा वा, धावंति ते दो विउ जाव लोगो। वत्थस्स देहस्स य जो विकंपो, ततो वि वादादि भरिति लोग। पुनः शिष्य कहता है वस्त्र का छेदन करने पर शब्द होता है, पक्ष्म भी उड़ते हैं। दोनों लोकान्त तक जाते हैं। तथा वस्त्र और देह का जो विकंप होता है, तब उनसे विनिर्गत वायु भी सारे लोक को भर देती है। ३९२३.अहिच्छसे जंति न ते उ दूरं, संखोभिया तेहऽवरे वयंति। उर्ल्ड अधे यावि चउद्दिसिं पि, पूरिति लोगं तु खणेण सव्वं॥ यदि आप कहते हैं कि वस्त्रछेदन से समुत्थ शब्द-पक्ष्मवायु आदि के पुद्गल दूर तक नहीं जाते, किन्तु उनसे संक्षोभित-चालित दूसरे पुद्गल लोकान्त तक चले जाते हैं। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अभिन्नाइं वत्थाई धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र ९) ३९१८.अकसिण भिण्णमभिण्णं, व होज्ज भिण्णं तु अकसिणे भइत। कसिणा-ऽकसिणे य तहा, भिन्नमभिन्ने य चउभंगो॥ पूर्वसूत्र में अकृत्स्न वस्त्र की बात कही, वह वस्त्र भिन्न अथवा अभिन्न हो सकता है। अकृत्स्न वस्त्र भिन्न होने पर भी अकृत्स्न या कृत्स्न हो सकता है। इसलिए कृत्स्न, अकृत्स्न तथा भिन्न, अभिन्न की चतुर्भगी होती है, जैसे १. कृत्स्न अभिन्न २. कृत्स्न भिन्न ३. अकृत्स्न अभिन्न ४. अकृत्स्न भिन्न। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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