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४०४ इस प्रकार एक-दूसरे से प्रेरित पुद्गल क्षणभर में ऊर्ध्व, अधः तथा तिर्यक् और चारों दिशाओं में संपूर्ण लोक को भर देते हैं। ३९२४.विन्नाय आरंभमिणं सदोसं,
तम्हा जहालद्धमधिट्ठिहिज्जा। वुत्तं सएयो खलु जाव देही,
ण होति सो अंतकरी तु ताव॥ अतः यह आरंभ सदोष है, ऐसा जानकर जैसा वस्त्र प्राप्त हो, उसी का उपभोग करना चाहिए। इसीलिए व्याख्याप्रज्ञप्ति में कहा है कि जीव सैज होता है-सकंप होता है, चेष्टावान् होता है। जब तक वह संकप होता है तब तक वह अन्तकारी नहीं होता। ३९२५.जा यावि चिट्ठा इरियाइआओ,
संपस्सहेताहिं विणा न देहो। संचिट्ठए नेवमछिज्जमाणे,
वत्थम्मि संजायइ देहनासो॥ जो ईर्या आदि की चेष्टाएं देखी जाती हैं, उनके बिना देह का निर्वहन नहीं होता, देह के बिना संयम का भी व्यवच्छेद हो जाता है किन्तु वस्त्र का छेदन न करने पर देह का नाश नहीं होता। ३९२६.जहा जहा अप्पतरो से जोगो,
तहा तहा अप्पतरो से बंधो। निरुद्धजोगिस्स व से ण होति,
अछिद्दपोतस्स व अंबुणाधे॥ जैसे-जैसे जीव का अल्पतर योग-चेष्टा होती है वैसेवैसे कर्मों का बंध भी अल्पतर होता है। शैलेशी अवस्था में निरुद्धयोगी के कर्मबंध नहीं होता जैसे समुद्र में बहती हुई अच्छिद्रनौका में पानी का प्रवेश नहीं होता। ३९२७.आरंभमिट्टो जति आसवाय,
गुत्तीय सेआय तधा तु साधू। मा फंद वारेहि व छिज्जमाणं,
पतिण्णहाणी व अतोऽण्णहा ते॥ आचार्य कहते हैं-शिष्य! यदि तुम्हें यह सिद्धांत इष्ट हो कि आरंभ आश्रव अर्थात् कर्मों के उपादान का हेतु है और गुप्ति श्रेयस् अर्थात् कर्मों के अनुपादान के लिए है तो तुम कोई स्पन्दन मत करो और वस्त्र का छेदन करने वालों को भी मत रोको। (क्योंकि यदि तुम वस्त्रछेदन को आरंभ मानते हो और वह कर्मबंधन का हेतु है तो उसके प्रतिषेध में हाथ आदि का स्पंदन करते हो या शब्दों द्वारा प्रतिषेध
बृहत्कल्पभाष्यम् करते हो तो वह भी आरंभ है, चेष्टा है। यदि ऐसा करते हो तो प्रतिज्ञाहानि-स्ववचन का विरोध है। यह स्व-कथन से अन्यथा है। इससे दोष लगता है। ३९२८.अदोसवं ते जति एस सद्दो,
अण्णो वि कम्हा ण भवे अदोसो। अधिच्छया तुज्झ सदोस एक्को,
एवं सती कस्स भवे न सिद्धी। यदि तुम यह मानते हो कि वस्त्र छेदन के प्रतिषेधक शब्द के उच्चारण से दोष नहीं लगता तो अन्य अर्थात् वस्त्रछेदन आदि के लिए किया जाने वाला शब्दोच्चारण अदोष वाला क्यों नहीं होगा। यदि अपनी इच्छा के अनुसार एक क्रिया सदोष है और दूसरी अदोष तो फिर किस स्वपक्ष की सिद्धि नहीं होगी? ३९२९.तं छिंदओ होज्ज सतिं तु दोसो,
खोभादि तं चेव जतो करेति। जं पेहतो होति दिणे दिणे तु,
संपाउणंते य णिबुज्झ ते वी॥ वस्त्र का छेदन करने से एक बार दोष होता है क्योंकि जब उसको छेदा जाता है तब वह अन्य पुद्गलों को क्षुब्ध करता है। किन्तु जो वस्त्र छेदा नहीं जाता उस प्रमाणातिरिक्त वस्त्र की प्रत्युपेक्षणा से प्रतिदिन दोष लगता है। तथा उस वस्त्र को ओढ़ने पर विभूषा आदि दोष होते हैं, इन दोषों को भी समझो। ३९३०.घेत्तव्वगं भिन्नमहिच्छितं ते,
जा मग्गते हाणि सुतादि ताव। अप्पेस दोसो गुणभूतिजुत्तो,
पमाणमेवं तु जतो करिति॥ यदि लंबी गवेषणा कर भिन्न वस्त्र ही लेना तुम्हें इष्ट हो तो जितना समय गवेषणा में लगेगा उतने समय तक सूत्रार्थ की हानि होगी। जो वस्त्रछेदनरूप दोष है, वह गुणों की संपदा से युक्त है। (प्रत्युपेक्षणाशुद्धि और विभूषापरिहार-ये गुण हैं।) इसलिए वे मुनि वस्त्र का प्रमाण करते हैं, प्रमाणातिरिक्त वस्त्र का ग्रहण नहीं करते। ३९३१.आहार-णीहारविहीसु जोगो,
सव्वो अदोसाय जहा जतस्स। हियाय सस्सम्मि व सस्सियस्स,
___भंडस्स एवं परिकम्मणं तु॥ जो यतनावान् मुनि हैं उनके द्वारा आहार-नीहार आदि विधि विषय के सारे योग तथा भांड का परिकर्म भी निर्दोष
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