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________________ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय सकता है ? जिज्ञासा और उसका समाधान। पचा ५२३४ कालिकश्रुत की धर्मता। ५२३५ कालिकश्रुत में अर्थापत्ति का निषेध तथा कालिकश्रुत का स्वरूप। गिलायमाण-पदं सूत्र १०,११ ५२३६ ग्लानसूत्र का प्रारंभ। ५२३७ धर्म पुरुषप्रधान है फिर भी स्त्री (निग्रंथी) का निर्देश पहले क्यों? ५२३८ सुविहित मुनि के लिए आलिंगन आदि की वर्जना। ५२३९,३२४० निर्ग्रन्थी, स्त्री और गृहस्थ का आलिंगन करने से आने वाला प्रायश्चित्त। ५२४१ आलिंगन करने से होने वाले दोष। ५२४२ संक्रमित होने वाले रोग और उनकी चतुभंगी। ५२४३ गृहस्थों, संयतों के साथ आलिंगन करने से लगने वाले दोष। ५२४४-५२४८ कारण में ग्लान सेवा के लिए आलिंगन संबंधी यतनाएं। ५२४९-५२५२ मार्ग-अमार्ग अथवा दूसरों के अभाव में आत्यन्तिक ग्लानत्व में परिकर्म संबंधी यतनाएं। ५२५३-५२५९ यतना किए जाने पर भी निर्ग्रन्थी यदि पुरुष स्पर्श का आस्वादन करती है तो प्रायश्चित्त। ग्लान अवस्था में भी मैथुनाभिलाषा से संबद्ध शशक-मशक का उदाहरण। ५२६०-५२६२ निर्ग्रन्थ के द्वारा निर्ग्रन्थी का आलिंगन करने पर प्रायश्चित्त और दोष की नियमा। स्पर्श आस्वादन संबंधी भगिनीयुगल का उदाहरण। कालातिक्वंत-भोयण-पदं सूत्र १२,१३ ५२६३ ब्रह्मव्रत के परिणाम के अनतिक्रम का प्रतिपादन। ५२६४,५२६५ अशन आदि का कालातिक्रम करने पर प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष। ५२६६ मुनि के लिए अशन आदि का संचय करने का प्रतिषेध। ५२६७ अयतना से होने वाली हानियां। ५२६८-५२७० भक्तपान को स्थापित करने और परिष्ठापन से गाथा संख्या विषय होने वाले दोष। प्रथम प्रहर में ग्रहण किए हुए भक्तपान की प्रथम प्रहर में ही उपयोग विधि। शिष्य की जिज्ञासा-भिक्षा ग्रहण करते-करते यदि दूसरा पहर आ जाए तो शोधि कैसे? आचार्य द्वारा समाधान। ५२७१ आहार आदि शेष रहने के कारण। ५२७२ पौरुषी का प्रत्याख्यान करने वाले मुनि के लिए पौरुषी बीत जाने पर सर्व आहार करने की विधि। समाप्ति न होने पर दूसरों को देने और मात्रक में रखने का निर्देश। ५२७३ प्रथम प्रहर में आनीत अशन का उपयोग कौन से प्रहर तक संभव? ५२७४ स्थापित आहार आदि की यतना। ५२७५-५२७७ अपायों में दोषों की नियमा। ५२७८ आहार ही न किया जाए तो अपाय होंगे ही नहीं, शिष्य की शंका, आचार्य का समाधान। ५२७९ कार्य के दो प्रकार। असाध्य कार्य कभी सिद्ध नहीं होता। ५२८० आहार के झंझटों से मुक्त होने संबंधी शिष्य की जिज्ञासा। ५२८१ आहार क्यों? ५२८२ अनुज्ञात काल का अतिक्रमण करने वाला अविद्यमान दोषों में भी प्रायश्चित्तभागी। ५२८३ जिनकल्पी के समान प्रथम पौरुषी में भक्तपान ग्रहण कर पश्चिम पौरुषी का अतिक्रमण दोषयुक्त। ५२८४ चरम पौरुषी के अतिक्रान्त होने के कारण। ५२८५ समय अतिक्रान्त होने पर भोजन परिष्ठापनीय। अन्य अशन की अप्राप्ति में उसी का परिभोग। ५२८६ आपवादिक कारणों में अतिक्रान्त काल में भोजन करना निर्दोष। ५२८७ अर्द्धयोजन से आगे अशन आदि ले जाने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त। ५२८८ क्षेत्रातिक्रान्त से होने वाले दोषों का स्वरूप। ५२८९-५२९१ जिनकल्पिक और गच्छवासी मुनि के लिए क्षेत्र की अपनी-अपनी मर्यादा। ५२९२-५२९४ आचार्य के लिए प्रायोग्य द्रव्य लाने के लिए संघाटक की नियुक्ति। तदसंबंधी अगारी और कृपण वणिक् का दृष्टान्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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