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________________ ३८ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ५७६२-५७८० कलह के कारण गच्छ से अनिर्गत अथवा क्लेशयुक्तचित्त से गच्छ में रहने वाले भिक्षु, उपाध्याय तथा आचार्य आदि को शान्त करने की विधि । अनुपशान्त में लगने वाला प्रायश्चित्त दोष और अपवाद आदि। कुमार का दृष्टान्त। ५७८१ पुरुष विशेष की अपेक्षा से दंड के तीन प्रकार। ५७८२ परगच्छ में पद स्थापना की भिन्न-भिन्न व्यवस्था और प्रायश्चित्त का नानात्व। ५७८३ कारण समाप्त होने पर अयोग्य को गण से निर्गत न करने पर कलह आदि दोष। राईभोयण-पदं सूत्र ६-९ ५७८४ रात्री में आहार ग्रहण के आपवादिक कारण। ५७८५ चार सूत्रों के नाम तथा प्रथम सूत्र में तीन प्रकार से प्रायश्चित्त। ५७८६ अभी सूर्योदय नहीं हुआ है, इस मनोगत संकल्प से, शंकित मनःसंकल्प से भोजन करने पर प्रायश्चित्त की गुरुता-लघुता। ५७८७ सूर्य अस्तगत हो गया है, इस संकल्प से अथवा शंकित अवस्था में भोजन करने पर प्रायश्चित्त की गुरुता-लघुता। ५७८८ अनुदित सूर्य को मनः संकल्प से उदित मानकर भोजन करने वाला अदोषी और उदित सूर्य होने पर भी अनुदित मनःसंकल्प से भोजन करने वाला दोषी। संखड़ी के दो प्रकार। उनका अनुदित-उदित सूर्य के साथ संबंध। ५७८९ सूर्य के उदित, अनुदित, अस्तमित, अनस्तमित के विषय में होने वाले संकल्प के नाना प्रकार। ५७९० अनुदित, उद्गत, अनस्तमित, अस्तगत मनःसंकल्प में भक्तपान की गवेषणा, ग्रहण और भोजन करने से घटित होने वाले चार-चार भंगों की प्ररूपणा। ५७९१,५७९२ अनुदित मनःसंकल्प की चार लताएं। ५७९३-५८०० लताओं की शुद्ध-अशुद्ध की मार्गणा। ५८०१ सूर्य के अनुद्गत अथवा अस्तमित होने पर भोजन करने वालों में महादोषी कौन? शिष्य की जिज्ञासा। आचार्य का समाधान। ५८०२ अनुदित और अस्तमित समय में भक्तपान को गाथा संख्या विषय ग्रहण करने वाला मुनि प्रायश्चित्त को कब प्राप्त करता है? ५८०३ सूर्य के अनुदित और अस्तमित को जानते हुए भी मुनि के कवलप्रमाण की अपेक्षा से भोजन करने पर प्रायश्चित्तों का नानात्व। ५८०४ सूर्य के अनुदित और अस्तमित को जानते हुए गणी-उपाध्याय और आचार्य के कवल प्रमाण की अपेक्षा से भोजन करने पर प्रायश्चित्तों की तरतमता। ५८०५,५८०६ सूर्य के अनुदित और अस्तमित के ज्ञात-अज्ञात अवस्था में कवल आहार करने पर अथवा बार बार के ग्रहण पर प्रायश्चित्तों की तरतमता। ५८०७ संस्तृत-असंस्तृत पदों की व्याख्या। ५८०८,५८०९ मुनि के अशुद्ध परिणामों के कारण प्रायश्चित्त। शुद्ध में प्रायश्चित्त नहीं। ५८१० सूर्य के अनुद्गत या अस्तमित की पहचान। ५८११ सूर्य के उदित अथवा अस्तमित के भ्रम के कारण। ५८१२,५८१३ सूर्य के अनुद्गत या अस्तमित की स्थिति में मुंह अथवा पात्र में गृहीत भक्तपान का परिष्ठापन, अन्यथा प्रायश्चित्त। विवेचन और विशोधन में नानात्व। ५८१४ रात्रीभक्तव्रत का अतिक्रमण-अनतिक्रमण करने वाला कौन? ५८१५ विचिकित्स सूत्र का स्वरूप। ५८१६ सूर्य अनुदित या उदित, सूर्य अस्तमित या अनस्तमित-इन विकल्पों के आधार पर होने वाले विविध भंग। ५८१७-५८२७ असंस्तृत के तीन प्रकार तथा उनका स्वरूप। उनसे निष्पन्न विविध प्रायश्चित्त आदि। . उग्गाल-पदं सूत्र १० ५८२८ अभ्रसंस्तृत विचिकित्सा का स्वरूप तथा प्रायश्चित्त आदि। ५८२९ रात्री में आने वाले उद्गार को निगलने का प्रतिषेधात्मक सूत्र तथा द्रव्य प्रमाण का प्रतिपादन। ५८३०-५८३२ भिक्षु, आचार्य आदि को उद्गार संबंधी प्रायश्चित्त तथा दोष। अमात्यवटुक का उदाहरण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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