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________________ तीसरा उद्देशक = ४७३ ४५९७.एगं णायं उदगं, वागरणमहिंसलक्खणो धम्मो। गाहादि सिलोगेहि य, समासतो तं पि ठिच्चाणं॥ यदि कोई पूछे तो विवक्षित अर्थ का समर्थक एक दृष्टांत कहना चाहिए। वैसा 'उदक का दृष्टांत' मात्र कहना चाहिए। व्याकरण का अर्थ है निर्वचन। किसी ने धर्म का लक्षण पूछा हो तो कहे-अहिंसा लक्षणो धर्मः-धर्म है अहिंसा। अथवा गाथाओं से या श्लोकों से संक्षेप में धर्मकथन करे। वह भी एक स्थान पर बैठकर। सज्जा संशारय-पतं उल्लंघन है। यह मृषावाद है। अथवा धर्मकथा सुन रही अपनी पत्नि से पति कहता है-अमुक वस्तु मुझे परोसो। पत्नी कहती है-वह वस्तु तो कुत्ता खा गया। पति तब कहता है मैं उस कुत्ते को जानता हूं। इस प्रकार उसके मन में मृषावाद विषयक शंका होती है। ४५९३.खुहिया पिपासिया वा, मंदक्खेणं न तस्स उठे। गब्भस्स अंतरायं, बाधिज्जइ सन्निरोधेणं॥ धर्मकथा सुनने के लिए बैठी हुई गर्भवती स्त्री भूखी और प्यासी हो सकती है, वह लज्जावश वहां से नहीं उठती, इससे गर्भ में अंतराय होता है। आहार के व्यवच्छेद रूपी सन्निरोध से गर्भ बाधित होता है। ४५९४.उक्खिवितो सो हत्था, चुतो त्ति तस्सऽग्गतो णिवाडित्ता। सोतार वियारगते, हा ह त्ति सवित्तिणी कुणती॥ स्त्री धर्म सुनते-सुनते, अपने शिशु को वहीं छोड़कर शौचार्थ विचारभूमी में चली गई। इतने में ही उसकी सोत आई और उस शिशु को हाथों में उठाया और साधु के आगे उसको पटक दिया और चिल्लाने लगी कि हा! हा! इस श्रमण ने इस शिशु को उठाया और इसके हाथ से च्युत होकर यह शिशु भूमी पर गिरा और मर गया। इस प्रकार मृषावाद से श्रमण ग्रस्त होता है। ४५९५.सयमेव कोइ लुद्धो, अवहरती तं पडुच्च कम्मकरी। वाणिगिणी मेहुण्णे, बहुसो य चिरं च संका य॥ - कोई मुनि घर में आभूषणों को देखकर कोई वस्तु उठा लेता है, अथवा कोई दासी किसी आभूषण का अपहरण कर सोचती है कि साधु पर शंका की जाएगी, मेरे पर नहीं। इस प्रकार अदत्तादान का दोष भी उस संयत पर आ सकता है। कोई प्रोषितभर्तृका गृहिणी है। कोई मुनि उसके घर बार-बार जाता है और लंबे समय तक ठहरता है। उस पर शंका होती है। ४५९६.धम्मं कहेइ जस्स उ, तम्मि उ वीयारए गए संते। ___ सारक्खणा परिग्गहो, परेण दिट्ठम्मि उड्डाहो॥ मुनि जिस घर में धर्मकथा करता है, गृहस्वामी के शौचभूमी में जाने पर वह मुनि घर का संरक्षण करता है तो परिग्रहदोष का आभागी होता है। दूसरे के देख लेने पर उड्डाह होता है। इस प्रकार अन्तरगृह में बैठकर धर्मकथा करने के ये दोष हैं। अतः वहां बैठकर धर्मकथा नहीं करनी चाहिए। नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारियं सिज्जा-संथारयं आयाए अप्पडिहुटु संपव्वइत्तए॥ (सूत्र २५) ४५९८.अविदिण्णमंतरगिहे, परिकहणमियं पऽदिण्णमिइ जोगो। णिग्गमणं व समाणं, बहिं व वुत्तं इमं अंतो॥ अन्तरगृह में उपदेश देना अवितीर्ण अर्थात् तीर्थंकरों या गृहपति के द्वारा अनुज्ञात नहीं है। इसी प्रकार प्रातिहारिक शय्या-संस्तारक का न लौटाना भी अनुज्ञात नहीं है। यह योग है। संबंध है। पूर्वसूत्र और प्रस्तुत सूत्र दोनों में प्रतिश्रय से निर्गमन समान है। अथवा पूर्वसूत्र प्रतिश्रय से बाहर भिक्षा के लिए निर्गत भिक्षु को धर्मकथा करना नहीं कल्पता, यह कहा है। प्रस्तुत सूत्र में प्रतिश्रय के मध्य संस्तारक का निक्षेपण नहीं कल्पता, यह कहा है। ४५९९.सिज्जा संथारो या, परिसाडी अपरिसाडि मो होइ। परिसाडि कारणम्मि, अणप्पिणे मासो आणादी॥ शय्या अथवा संस्तारक के दो प्रकार हैं-परिशाटी तथा अपरिशाटी। परिशाटी तृणमय होता है और अपरिशाटी फलकमयी। परिशाटी कारण में ग्रहण कर उसको यदि पुनः बिना अर्पित किए विहार करता है, उसे मासलघु का प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। ४६००.सोच्चा गत त्ति लहुगा, अप्पत्तिय गुरुग जं च वोच्छेओ। कप्पट्ट खेल्लणे णयण डहण लहु लहुग गुरुगा य॥ यदि संस्तारक स्वामी यह सुन ले कि साधु संस्तारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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