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________________ ४७४ = बृहत्कल्पभाष्यम् को लौटाये बिना चले गए हैं, तो उसको चतुर्लघु, यदि स्वामी को अप्रीति उत्पन्न होती है तो चतुर्गुरु, उस द्रव्य का व्यवच्छेद हो गया हो तो चतुर्गुरु, उस शून्य संस्तारक पर बालक खेलते हों तो मासलघु, उसको अन्यत्र ले जाते हों तो चतुर्लघु, उसको जला देते हों तो चतुर्लघु तथा दहन में प्राणियों की विराधना होती है, उसका भिन्न प्रायश्चित्त आता है। ४६०१.दिज्जते वि तयाऽणिच्छितूण अप्पेमु भे त्ति नेतूणं। कयकज्जा जणभोगं, काऊण कहिं गया भच्छा। पुनः अर्पित न किये जाने वाला संस्तारक दिये जाने पर भी मुनि तब नहीं चाहते। बाद में मासकल्पपूर्ण होने पर हम पुनः लौटा देंगे यह कहकर ले जाते हैं। अपना कार्य पूर्ण हो जाने पर उस संस्तारक को जनभोग्य कर, शून्य में डालकर वे भच्छ-दुर्दृष्टधर्मा मुनि कहीं चले जाते हैं। ४६०२.कप्पट्ट खेल्लण तुअट्टणे य लहुगो य होति गुरुगोय। __इत्थी-पुरिसतुयट्टे, लहुगा गुरुगा अणायारे॥ यदि उस संस्तारक पर बालक खेलते हैं तो प्रायश्चित्त है लघुमास। यदि वे बालक उस पर सोते हैं तो गुरुमास, यदि स्त्री-पुरुष सोते हैं तो चतुर्लघु, उस पर अनाचार का सेवन करते हैं तो चतुर्गुरु। ४६०३.वोच्छेदे लहु-गुरुगा, नयणे डहणे य दोसु वी लहुगा। विहणिग्गयादडलंभे, जं पावे सयं व तु णियत्ता। एक साधु और उसी एक द्रव्य का व्यवच्छेद होने पर चतुर्लघु, अनेक साधु और अन्य द्रव्यों का व्यवच्छेद होने पर चतुर्गुरु, ले जाने और दहन करने पर चतुर्लघु और व्यवच्छेद के कारण संस्तारक की प्राप्ति न होने पर अध्वनिर्गत मुनि जो परिताप आदि प्राप्त करते हैं, उसका प्रायश्चित्त तथा स्वयं निवृत्त होकर वहां आने पर संस्तारक न मिलने के कारण जिस विराधना को प्राप्त होते हैं, उसका प्रायश्चित्त आता है। ४६०४.माइस्स होति गुरुगो, जति एक्कतो भागऽणप्पिए दोसा। अह होति अण्णमण्णे, ते च्चेव य अप्पिणणे सुद्धो॥ मायावी के गुरुमास का प्रायश्चित्त प्रास होता है। माया कैसे? एक ही घर से अनेक मुनि अनेक संस्तारक लाए हों और भाग अर्थात् प्रत्यर्पणकाल में अपना संस्तारक उस नीयमान संस्तारकों में प्रक्षिस कर देना, यह दोष है। अथवा अन्य-अन्य गृहों से लाए गए संस्तारक हों, उस समय माया करने पर भी वे ही दोष प्राप्त होते हैं। अतः जिस घर से संस्तारक लाए, उसी घर में विधिपूर्वक प्रय॑पण करना शुद्ध है। ४६०५.संथारेगमणेगे, भयणऽट्ठविहा उ होइ कायव्वा। पुरिसे घर संथारे, एगमणेगे तिसु पतेसु॥ संस्तारक के एक-अनेक पदों से आठ प्रकार की भजना करनी चाहिए। वह इन तीन पदों से होती है-पुरुष, गृह और संस्तारक। आठ भंग इस प्रकार हैं (१) एक साधु एक घर से एक संस्तारक लाया। (२) एक साधु एक घर से अनेक संस्तारक लाया। (३) एक साधु अनेक घरों से एक संस्तारक लाया। (४) एक साधु अनेक घरों से अनेक संस्तारक लाया। इस प्रकार एक साधु के चार भंग हुए। अनेक साधु भी इसी प्रकार भंग प्रास करते हैं। ये सारे आठ भंग होते हैं। ४६०६.आणयणे जा भयणा, सा भयणा होति अप्पिणंते वि। वोच्चत्थ मायसहिए, दोसा य अणप्पिणंतम्मि॥ संस्तारक के आनयन की जो भजना है वही भजना उसके प्रत्यर्पण में होती है। जो प्रत्यर्पण में व्यत्यय करता है, माया करता है या सर्वथा प्रत्यर्पण ही नहीं करता उसमें दोष होते हैं। ४६०७.बिइयपय झामिते वा, देसुट्ठाणे व बोधिकभए वा। अद्धाणसीसए वा, सत्थो व पधावितो तुरियं। अपवादपद यह है। यदि संस्तारक जल जाए, संस्तारक का स्वामी गांव छोड़ कर चला गया हो, चोरों का भय उत्पन्न हो गया हो, मोर्चा लग गया हो अथवा कोई सार्थ आया और त्वरित प्रस्थान करने वाला था, इसलिए मुनि संस्तारक का प्रत्यर्पण न कर उस सार्थ के साथ चले गए। ४६०८.एतेहिं कारणेहिं, वच्चंते को वि तस्स उ णिवेदे। अप्पाहंति व सागारियाइ असदऽण्णसाहूणं॥ इन कारणों से प्रत्यर्पण न करने पर कोई मुनि जाकर उस संस्तारक स्वामी को निवेदन करे कि सार्थ त्वरित चला गया, इसलिए प्रत्यर्पण नहीं कर सके। यदि अन्य साधु न हों तो गृहस्थ को संदेश दे कि हमने अमुक का संस्तारक अमुक गृहस्थ को दिया है। ४६०९.एसेव गमो नियमा, फलएसु वि होइ आणुपुव्वीए। ___चउरो लहुगा माई, य नत्थि एयं तु नाणत्तं। यही विकल्प नियमतः क्रमशः फलक के विषय में होता है। फलकमय संस्तारक को प्रत्यर्पण न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। इसमें माया नहीं होती। इसी प्रकार यह संस्तारक से नानात्व है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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