________________
४७२
= बृहत्कल्पभाष्यम् में तप-नियम की भावना बढ़े, वह कथा वैराग्य से संयुक्त हो, जिसे सुनकर मनुष्य संवेग और निर्वेद की ओर बढ़े।
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अंतरगिहंसि इमाइं पंच महव्वयाई सभावणाई आइक्खित्तए वा विभावेत्तए वा किट्टित्तए वा पवेइत्तए वा, नण्णत्थ एगणाएण वा एगवागरणेण वा एगगाहए वा एगसिलोएण वा। से वि य ठिच्चा नो चेवणं अठिच्चा॥
(सूत्र २४)
इसलिए यह नियम अनेकांतिक है। एक स्थान पर देखा गया सर्वत्र नहीं होता। संसार में भक्ष्य-अभक्ष्य, पेय-अपेय की पृथक्-पृथक् व्यवस्था देखी जाती है। प्राणी के अंग होने पर भी मांस, वसा आदि अभक्ष्य माने जाते हैं और ओदन, पक्वान्न आदि भक्ष्य। मद्य, रुधिर आदि अपेय और पानी, छाछ आदि पेय माने जाते हैं। ४५८४.जं इच्छसि अप्पणतो, जं च ण इच्छसि अप्पणतो।
तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणयं। तुम जो अपनी आत्मा के लिए चाहते हो और जो नहीं चाहते, वही दूसरी आत्मा के लिए भी चाहो। यही जिनशासन का उपदेश है। ४५८५.सव्वारंभ-परिग्गहणिक्खेवो सव्वभूतसमया य।
एक्कग्गमणसमाहाणया य अह एत्तिओ मोक्खो॥ समस्त आरंभ (हिंसा आदि) और परिग्रह का त्याग करना, समस्त प्राणियों के प्रति समता रखना तथा एकाग्रमनःसमाधानता रखना यही मोक्ष है-इतना ही मोक्ष का उपाय है। ४५८६.सव्वभूतऽप्पभूतस्स, सम्म भूताई पासओ।
पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई॥ जो समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान जानता है, जिसने आस्रवों का द्वार बंद कर दिया है तथा जो दान्त - है, उसके पाप कर्म का बंध नहीं होता। ४५८७.इरियावहियाऽवण्णो, सिट्ठ पि न गिण्हए अतो ठिच्चा।
भद्दिड्डी पडिणीए, अभियोगे चउण्ह वि परेण ॥ चंक्रमण करता हुआ मुनि जो धर्म कहता है, उसकी निन्दा होती है और उसका कहा हुआ धर्म कोई श्रोता ग्रहण भी नहीं करता। अतः बैठकर धर्म कहना चाहिए। कोई भद्रक धर्म पूछे तो उसे विस्तार से बताए। कोई प्रत्यनीक आ रहा हो तो, उसके चले जाने पर धर्म कहे। यदि दंडिक आदि की अभियोग-बलात् कहने की बात आए तो चार गाथाओं या श्लोकों के अतिरिक्त भी धर्म का प्रवचन करे। ४५८८.सिंगाररसुत्तुइया, मोहमई फुफुका हसहसेति।
जं सुणमाणस्स कहं, समणेण न सा कहेयव्वा॥ जिस कथा को सुनकर श्रोता के मन में श्रृंगार रस उत्तेजित होता हो, मोहमयी ज्वाला जाज्वल्यमान होती हो वैसी कथा श्रमण को नहीं कहनी चाहिए। ४५८९.समणेण कहेयव्वा, तव-णियमकहा विरागसंजुत्ता।
जं सोऊण मणूसो, वच्चइ संवेग-णिव्वेयं॥ श्रमण को वैसी कथा कहनी चाहिए जिससे श्रोता के मन
४५९०.गहिया-ऽगहियविसेसो, गाधासुत्तातो होति वयसुत्ते।
णिपुंसकतो व भवे, परिमाणकतो व विण्णेतो॥ गाथासूत्र से व्रतसूत्र इस बात में विशेष है कि गाथासूत्र केवल ग्रथित होता है और व्रतसूत्र ग्रथित और अग्रथित दोनों प्रकार का होता है। अथवा प्रस्तुत सूत्र में जो निर्देशकृत है वह यहां विशेष है-यहां इस सूत्र में भावनायुक्त पांच महाव्रतों की बात कही है। यही विशेष निर्देश है। अथवा पूर्वसूत्र में धर्म का स्वरूप कहा है, वही यहां महाव्रतपंचक के रूप में निर्दिष्ट है। ४५९१.पंचमहव्वयतुंगं, जिणवयणं भावणापिणिद्धागं।
साहणे लहुगा आणाइ दोस जं वा णिसिज्जाए। जिनवचन पांच महाव्रतों से उत्तुंग मेरु के सदृश है और वह भावनाओं से नियंत्रित है। अन्तरगृह में बैठकर इसका वर्णन करने वाले मुनि को चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। इसके साथसाथ गृहनिषद्या के जो दोष होते हैं, उनका प्रायश्चित्त भी आता है। ४५९२.पाणवहम्मि गुरुव्विणि, कप्पट्ठोद्दाणए य संका उ।
भणिओ ण ठाइ कोयी, मोसम्मि य संकणा साणे॥ गृह में बैठकर कोई मुनि धर्मकथा करता है और श्रोता के रूप में कोई गर्भिणी स्त्री बैठी है तो उसके गर्भस्थ शिशु के आहार का व्यवच्छेद होता है। इससे विपत्ति होती है, प्राणवध होता है। कोई स्त्री धर्मकथा सुनते-सुनते अपने छोटे बालक को वहीं छोड़कर शंका-निवारण के लिए जाती है। पीछे से कोई उस बालक को मार देता है तो लोग मुनि पर शंका करते हैं। गृहस्थ के द्वारा प्रतिषेध करने पर भी जो उस घर में प्रतिदिन जाता है तो भगवान् की आज्ञा का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org