________________
तीसरा उद्देशक
करने वाले मुनि के एषणा का काल बीत जाता है। काल बीत जाने पर वह मुनि एषणा की प्रेरणा करता है। इससे शंका आदि दोष उत्पन्न होते हैं।
४५७३. वामद्दति इय सो जाब तेण ता गहियभोयणा इयरे । अच्छंते अंतरायं, एमेव य जो पडिण्णत्तो ॥ भिक्षाटन करता हुआ वह मुनि जब तक उत्तर- प्रत्युत्तर में संलग्न रह कर व्याक्षेप से समय को गंवाता है तब तक इतर मुनि भोजन से निवृत्त होकर या गोचरी लाकर उस मुनि की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं। अतः अंतरायदोष लगता है तथा ग्लान के लिए प्रायोग्य आहार लाने की जो बात स्वीकृत की थी, वह समय पर न दिए जाने पर, उसके भी अंतराय होता है।
४५७४. कालाइकमदाणे, होह गिलाणस्स रोगपरिबुद्धी ।
परितावऽणगावाती, लहुगाती जाब चरिमपदं ॥ ग्लान के भक्त पान के काल का अतिक्रमण होने पर उसके रोग-परिवृद्धि होती है उसके अनागाढ तापनाविक होती है, तथा फलस्वरूप चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है तथा ग्लान की मृत्यु हो जाने पर चरमपद अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त आता है।
४५७५.किं जाणंति वरागा, हलं जहित्ताण जे उ पव्वइया ।
एवंविधो अवण्णो मा होडिइ तेण कहयंति ॥ गोचरा में प्रविष्ट मुनि भी दूसरे के द्वारा पूछे जाने पर अपवादपद में कुछ कह भी सकता है - कुछ न कहने पर लोग कहते हैं ये बेचारे क्या जानते है। इन्होंने हलों को छोड़कर प्रवज्या ली है। इस प्रकार का अवर्णवाद न हो इसलिए पूछने पर कुछ कहते हैं। ४५७६. एवं नायं उदगं वागरणमहिंसलक्खणो धम्मो ।
गाहाहिं सिलोगेहि व समासतो तं पि ठिच्चाणं ॥ यदि कोई पूछे तो विवक्षित अर्थ का समर्थक एक दृष्टांत कहना चाहिए। वैसा 'उदक का दृष्टांत' मात्र कहना चाहिए । व्याकरण का अर्थ है- निर्वचन । किसी ने धर्म का लक्षण पूछा हो तो कहे-अहिंसा लक्षणो धर्मः-धर्म है अहिंसा । अथवा गाथाओं से या श्लोकों से संक्षेप में धर्मकथन करे। वह भी एक स्थान पर बैठकर खड़े खड़े अथवा भिक्षा के लिए घूमते-घूमते न करे।
४५७७. नज्जइ अण अत्थो, णायं दिवंत इति व एगद्वं ।
वागरणं पुण जा जस्स धम्मता होति अत्थस्स ॥ जिससे दाष्टन्तिक अर्थ जान लिया जाता है वह है ज्ञात और दृष्टांत एकार्थक हैं। व्याकरण का अर्थ है - जिस अर्थ की
Jain Education International
४७९
जो धर्मता स्वभाव है उसका निर्वचन ।
उदक का दृष्टांत
एक साधु दूसरे गांव में भिक्षा के लिए जा रहा था। बीच में एक गृहस्थ मिल गया। दोनों जा रहे थे। मार्ग के बीच पानी बह रहा था। उसको पार कर गृहस्थ अपने बहन के घर मेहमान बन कर रह गया। साधु भी भिक्षा के लिए घूमतेघूमते उसी घर में गया।......
४५७८. पप्पं खु परिहरामो, अप्पप्पविवन्नओ ण विज्जति हु।
पप्पं खलु सावज्जं, वज्जेंतो होइ अणवज्जो ॥ हम प्राप्य अर्थात् शक्य का ही परिहार करते हैं। अप्राप्य जिसका परिहार नहीं किया जा सकता उसका परिहारकर्त्ता कोई नहीं होता। इसलिए अभी सामने जो सावद्य है उसका वर्जन करना अनवद्य - निर्दोष है।
४५७९. चिरपाहुणतो भगिणिं, अवयासिंतो अदोसवं होति ।
तं चैव मज्झ सक्खी, गरहिज्जइ अण्णहिं काले ॥ चिरकाल से समागत प्राघूर्णक भाई अपनी बहन का सस्नेह आलिंगन करता है, तब भी अदोषी है। मुनि ने कहाइसके तुम ही मेरे प्रमाण हो क्योंकि अभी - अभी तुमने बहन का आलिंगन किया है। अन्य समय में यदि भाई बहन का आलिंगन करता है तो वह निन्द्य होता है। ४५८०.पादेहिं अधोतेहि वि, अक्कमितूणं पि कीरती अच्चा ।
सीसेण वि संकिज्जति, स च्चेव चितीकया छिविउं ॥ प्रतिमा की जब तक प्रतिष्ठा नहीं होती तब तक अधौत पैरों से भी उस पर चढ़ा जा सकता है। यदि वही प्रतिमा मन्दिर में स्थापित कर दी जाती है तब उसका सिर से स्पर्श करने पर भी लोग शंका करते हैं।
४५८१. केइ सरीरावयवा देहत्था पूइया न उ विउत्ता
सोहिज्जति वणमुहा, मलम्मि वूढे ण सव्वे तु ॥ शरीर के कुछेक अवयव देहस्थ होने पर ही पूजे जाते हैं, विलग होने पर नहीं व्रणमुख वाले कुछेक अवयव (कान, चक्षु, पायु) जिनसे मल बहने पर भी कुछेक का ही शोधन किया जाता है, सबका नहीं ।
४५८२. जइ एगत्थुवलद्धं, सव्वत्थ वि एव मण्णसी मोहा।
भूमीतो होति कणगं, किण्ण सुवण्णा पुणो भूमी ॥ 'एकत्र जो उपलब्ध होता है, सर्वत्र भी वह उपलब्ध होना 'चाहिए' यदि तुम मोहवश मानते हो तो बताओ, भूमी से सोना उत्पन्न होता है तो सोने से भूमी उत्पन्न क्यों नहीं होती ? ४५८३. तम्हा उ अणेगंतो ण दिट्ठमेगत्थ सव्वहिं होति । लोए भक्खमभक्खं पिज्जमपिज्जं च दिट्ठाई ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.