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आचार्य ने कहा- पूर्व अर्थात् प्रथम तीर्थंकर के तीर्थ में परिहारकल्प एक लाख पूर्वों तक चलता है और अंतिम तीर्थंकर के तीर्थ में 'विंशत्यग्रशः' अर्थात् कुछेक विंशति संख्या परिच्छिन्न वर्षों तक वह अनुवर्तित होता है अर्थात् देशोन दो सौ वर्ष तक |
वीसहिं ।
६४५१. पव्वज्ज अट्ठवासस्स, दिट्ठिवातो उ इति एकूणतीसाए, सयमूणं तु पच्छिमे ॥ ६४५२. पालइत्ता सयं ऊणं, वासाणं ते अपच्छिमे । काले देसिंति अण्णेसिं, इति ऊणा तु बे सता ॥ श्री वर्द्धमान स्वामी के काल में किसी बालक की जन्मकाल से आठवें वर्ष में प्रव्रज्या हो गई। उसने बीसवें वर्ष में दृष्टिवाद का ग्रहण कर लिया। तदनन्तर भगवान् महावीर के पास नौ व्यक्तियों ने परिहारकल्प स्वीकार कर देशोनवर्षशत तक उसका पालन किया। इस प्रकार उनतीस वर्ष से न्यून सौ वर्ष तक उस तीर्थ में कल्प का प्रवर्तन रहा। स्वयं सौ वर्षों से न्यून कल्प का पालन कर अपने जीवन के अन्तकाल में वे दूसरों को कल्प का प्ररूपण करते हैं। वे भी उनतीस वर्ष न्यून सौ वर्ष तक पालन करते हैं। इस प्रकार कुछ न्यून दो सौ वर्ष होते हैं।
६४५३. पडिवन्ना निर्णिक्स्स, पादमूलम्मि जे बिऊ ।
ठावयंति उ ते अण्णे, णो उ ठावितठावगा ॥ जो विद्वान् व्यक्ति जिनेन्द्र के पादमूल में इस कल्प को स्वीकार करते हैं वे ही दूसरों को उसमें स्थापित कर सकते हैं, न कि स्थापितस्थापक इसका हार्द यह है कि यह कल्प तीर्थंकर के पास स्वीकार किया जाता है या जिस साधु ने तीर्थंकर के पास इसको स्वीकार किया है, उसके पास इसका ग्रहण किया जाता है, दूसरे के पास नहीं । ६४५४. सव्वे चरित्तमंतो य, दंसणे
परिनिडिया। णवपुव्विया जहन्नेणं, उक्कोस दसपुब्विया ॥ ६४५५. पंचविहे बवहारे, कप्पे तदुविहम्मि य । दसविहे य पच्छित्ते, सव्वे ते परिणिट्टिया ॥ परिहारकल्प स्वीकार करने वाले सभी मुनि चारित्रवान्, दर्शन में परमकोटि को प्राप्त, जघन्यतः नौपूर्वी, उत्कृष्टतः दशपूर्वी (किंचित् न्यूनदशपूर्वी) तथा पांच प्रकार के व्यवहार में-3 -आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत तथा दो प्रकार के कल्प में अकल्पस्थापनाकल्प तथा शैक्षस्थापनाकल्प अथवा स्थविरकल्प और जिनकल्प में तथा दश प्रकार के प्रायश्चित्त में इन सबमें वे मुनि परिनिष्ठित होते हैं। ६४५६. अप्पणो आउगं से, जाणित्ता ते महामुनी । परक्कमं च बल विरियं पच्चवाते तहेव य ॥
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बृहत्कल्पभाष्यम्
वे महामुनि अपने आयुष्य का अन्त जानकर अपने बल, वीर्य और पराक्रम को समझकर परिहारकल्प स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार प्रत्यपाय-रोग आदि के विषय में भी पहले ही ध्यान दे देते हैं।
६४५७. आपुच्छिऊण अरहंते, मगं देसेंति ते इमं । पमाणाणि य सव्वाई, अभिग्गहे य बहुविहे ॥ अरिहंतों को पूछकर वे इस कल्प को स्वीकार करते हैं। अरिहंत उनको इस कल्प का मार्ग सामाचारी बताते हैंसभी प्रमाण और बहुविध अभिग्रह निदर्शित करते हैं। ६४५८. गणोवहिपमाणाई, पुरिसाणं च जाणि तु ।
दव्वं खेत्तं च कालं च भावमण्णे व पज्जवे ॥ अरिहंत उन्हें गणप्रमाण, उपधिप्रमाण, पुरुषप्रमाण जो इस कल्प में जघन्य आदि भेद से अनेक प्रकार के होते हैं तथा द्रव्य - अशन आदि, क्षेत्र - मासकल्प प्रायोग्य वर्षावास - प्रायोग्य काल मासकल्प और वर्षावास के लिए प्रतिनियतकाल तथा भाव - क्रोध आदि के निग्रहरूप तथा अन्यनिष्प्रतिकर्मता आदि तथा लेश्या ध्यान आदि रूप पर्याय- इन सभी का उनको उपदेश देते हैं।
६४५९. पंचहिं अग्गहो भत्ते, तत्थेगीए अभिग्गहो ।
उबहिणो अग्गहो दोसुं, इयरो एक्कतरीय उ । भक्तपान के विषय में सात एषणाओं में प्रथम दो को छोड़कर शेष पांच का आग्रह स्वीकार, उसमें से किसी एक का अभिग्रह उपधि विषयक चार एषणाओं में से अंतिम दो एषणाओं का आग्रह स्वीकार और तीसरी, चौथी एषणाओं में से किसी एक का अभिग्रह।
६४६०, अहरोन्गयम्मि सूरे, कप्पं देसिंति ते आलोइय-पडिक्कंता, ठावयंति तओ
इमं ।
गणे ॥
सूर्य के उदित होते ही वे इस कल्प को स्वयं स्वीकार कर दूसरों को दिखाते हैं। तत्पश्चात् आलोचित - प्रतिक्रान्त होकर तीन गणों की स्थापना करते हैं। ६४६१. सत्तावीस जहणेणं, उक्कोसेण
सहस्ससो। निग्गंथसूरा भगवंतो, सव्वग्गेणं वियाहिया ।। इन तीन गणों में जघन्यतः २७ पुरुष और उत्कृष्टतः हजार पुरुष होते हैं। इस प्रकार वे भगवान् निर्ग्रन्थशूर सर्वसंख्या से कहे गए हैं।
६४६२. सयग्गसो य उक्लोसा, जहण्णेण तओ गणा ।
गणो य णवतो वृत्तो, एमेता पडिवत्तितो॥ इनके गणों की उत्कृष्ट संख्या सौ होती है। और जघन्य संख्या तीन होती है। प्रत्येक गण नौ पुरुष प्रमाण का होता है। ये इनकी प्रतिपत्तियां हैं-प्रमाणों के प्रकार हैं।
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