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छठा उद्देशक
६७५ जो मध्यम तीर्थंकरों के अस्थितकल्पिक साधु हैं वे स्थापनाकल्प के दो प्रकार हैं-अकल्पस्थापनाकल्प और पूर्वकोटि के दोषों के अभाव में एक क्षेत्र में रहते हैं और शैक्षस्थापनाकल्प। अकल्पिक-जिसने पिण्डैषणा न पढ़ा हो, अकर्दम और प्राणरहित भूतल होने पर वर्षा में भी वे विहरण उससे आहार आदि न ग्रहण न करे और न उससे मंगाए। करते हैं।
६४४३.अट्ठारसेव पुरिसे, वीसं इत्थीओ दस णपुंसा य। तनुक (सूक्ष्म) कारण को प्राप्त करके भी वे मासकल्प दिक्खेति जो ण एते, सेहट्ठवणाए सो कप्पो॥ को भिन्न कर देते हैं अर्थात् उसे पूरा किए बिना विहार कर अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियां तथा दस जाते हैं। मध्यम तीर्थंकरों के जिनकल्पिक मुनि और इसी प्रकार के नपुंसक-इन अड़तालीस को दीक्षा नहीं देता, वह प्रकार महाविदेह के स्थविरकल्पी और जिनकल्पमुनि भी शैक्षस्थापनाकल्प कहलाता है। अस्थितकल्पी होते हैं।
६४४४.आहार-उवहि-सेज्जा, उग्गम-उप्पादणेसणासुद्धा। ६४३७. एवं ठियम्मि मेरं, अट्ठियकप्पे य जो पमादेति।
जो परिगिण्हति णिययं, उत्तरगुणकप्पिओ स खलु॥ सो वट्टति पासत्थे, ठाणम्मि तगं विवज्जेज्जा॥ जो आहार, उपधि, शय्या-इनको उद्गम, उत्पादन और इस प्रकार स्थितकल्प और अस्थितकल्प विषयक जो ____ एषणा दोषों से सदा शुद्ध ग्रहण करता है, वह उत्तरगुणमर्यादा कही गई है, उसमें जो प्रमाद करता है वह पार्श्वस्थ कल्पिक कहलाता है। स्थान में होता है। उसके साथ सम्भोज नहीं करना चाहिए। ६४४५.सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्ठतरए वा। ६४३८.पासत्थ संकिलिटुं, ठाणं जिण वुत्तं थेरेहि य।
साहूहिं संथवं कुज्जा, णाणीहिं चरित्तगुत्तेहिं। तारिसं तु गवसंतो, सो विहारे ण सुज्झति॥ सदृशकल्पी, सदृशछंद, तुल्यचारित्र अथवा विशिष्टतरजिनेश्वर ने तथा स्थविरों ने पार्श्वस्थ के स्थान को ऐसे जो ज्ञानी और चारित्रगुप्त साधु हों उनके साथ संस्तव संक्लिष्ट कहा है। वैसे स्थान की गवेषणा करने वाला मुनि करें। संविग्नविहारी नहीं होता।
६४४६.सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्ठतरए वा। ६४३९.पासत्थ संकिलि8, ठाणं जिण वुत्तं थेरेहि य।
आदिज्ज भत्त-पाणं, सतेण लाभेण वा तुस्से। तारिसं तु विवज्जेतो, सो विहारे विसुज्झति॥ सदृशकल्प, सदृशछंद, तुल्यचारित्र अथवा विशिष्टतरजिनेश्वर ने तथा स्थविरों ने पार्श्वस्थ के स्थान को ऐसा जो साधु हो उससे भक्तपान ग्रहण करे अथवा अपने संक्लिष्ट कहा है। वैसे स्थान का विवर्जन करने वाला मुनि विहार में विशुद्ध होता है।
६४४७.परिहारकप्पं पवक्खामि, परिहरंति जहा विऊ। ६४४०.जो कप्पठितिं एयं, सद्दहमाणो करेति सट्ठाणे।
आदी मज्झऽवसाणे य, आणुपुव्विं जहक्कम।। तारिसं तु गवेसेज्जा, जतो गुणाणं ण परिहाणी॥ मैं परिहारकल्प के विषय में कहूंगा, जिसका विद्वान् जो इस कल्पस्थिति पर श्रद्धा रखता हुआ स्वस्थान में मुनि आसेवन करते हैं। मैं उसकी आदि में, मध्य में और उसका पालन करता है-अस्थितकल्प के स्थान में अस्थित- अन्त में होने वाली सामाचारी का यथाक्रम आनुपूर्वी से कथन कल्प की और स्थितकल्प के स्थान में स्थितकल्प की और करूंगा। वैसे संविग्नविहारी मुनि की गवेषणा करता है, जिससे गुणों ६४४८.भरहेरवएसु वासेसु, जता तित्थगरा भवे। की परिहानि न हो तथा वैसे साधु के साथ संभोज का
पुरिमा पच्छिमा चेव, कप्पं देसेंति ते इमं॥ व्यवहार रखे।
भरत और ऐरावत क्षेत्रों में जितने पहले-पीछे तीर्थंकर ६४४१.ठियकप्पम्मि दसविधे, ठवणाकप्पे य दुविहमण्णयरे। होते हैं, सभी इस कल्प की प्ररूपणा करते हैं।
उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स संभोगो॥ ६४४९.केवइयं कालसंजोगं, गच्छो उ अणुसज्जती। दस प्रकार के स्थितकल्प में और दो प्रकार के
तित्थयरेसु पुरिमेसु, तहा पच्छिमएसु य॥ स्थापना कल्प में से किसी एक प्रकार में तथा शिष्य ने पूछा-पूर्व और पश्चिम तीर्थंकरों के परिहारउत्तरगुणकल्प में जो सदृक्कल्प (तुल्य सामाचारिक) होता कल्पिकों का गच्छ कितने काल-संयोग तक परंपरा से है, वह सम्भोग्य होता है।
अनुवर्तित होता है? ६४४२.ठवणाकप्पो दुविहो, अकप्पठवणा य सेहठवणा य। ६४५०.पुव्वसयसहस्साई, पुरिमस्स अणुसज्जती।
पढमो अकप्पिएणं आहारादी ण गिण्हावे॥ वीसग्गसो य वासाई, पच्छिमस्साणुसज्जती॥
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