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________________ संपादकीय जैन परंपरा में मुख्य रूप से चार भाष्य प्रचलित हैं-दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ। इनका नि!हण पूर्वो से हुआ, इसलिए इनका बहुत महत्त्व है। इनके नियूहण कर्ता भद्रबाहु 'प्रथम' माने जाते हैं। निशीथ के नि!हण के विषय में मतैक्य नहीं है। ___ कुछ वर्ष पूर्व व्यवहार भाष्य का संपादित पाठ के साथ, बीस-पचीस परिशिष्टों से युक्त, पदानुक्रम तथा भूमिका से संयुक्त संस्करण प्रस्तुत किया था। तत्पश्चात् जलगांव मर्यादा महोत्सव पर व्यवहारभाष्य का सानुवाद संस्करण जनता के समक्ष आया। आचार्यप्रवर ने राजस्थान से अहिंसा यात्रा के लिए प्रस्थान किया। उस यात्रा के दौरान गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश की यात्रा कर रहे थे। आचार्यप्रवर उस यात्रा के मध्य महाराष्ट्र के चौपड़ा गांव में पधारे। वहां विवेकानन्द हाई स्कूल में विराजना हुआ। मध्याह्न में आचार्यश्री ने अपने हाथों से बृहत्कल्पभाष्य का अनुवाद प्रारंभ करते हुए प्रथम श्लोक का अनुवाद अपनी हस्तलिपि से लिखा और फिर मुझे निर्दिष्ट करते हुए फरमाया अब तुम इस अनुवाद को आगे बढ़ाओ और पूरा करो। मैंने उसी दिन से यात्रा में भी इस कार्य को आगे बढ़ाया। वह दिन था ५ फरवरी २००४। यात्रा चलती रही। यात्रा में हम बीकानेर संभाग में आए। वहां उदासर में मैंने इस बृहद् काय ग्रंथ का अनुवाद संपन्न कर दिया। इस ग्रंथ में ६४९० गाथाएं हैं। इसके भाष्य के प्रणयिता संघदासगणी माने जाते हैं। टीकाकार इसकी टीका के दो रचयिता हैं महान् टीकाकार आचार्य मलयगिरि और आचार्य क्षेमकीर्ति सूरी। आचार्य मलयगिरि ने प्रारंभिक ६०६ गाथाओं की टीका लिखी। फिर उससे विरत हो गए। आचार्य क्षेमकीर्ति ने उसे आगे बढ़ाया और पुरे भाष्य की टीका संपन्न की। टीका प्रशस्त और विस्तृत है। आचार्य मलयगिरि ने इसे बीच में क्यों छोड़ा. यह अन्वेषणीय है। आचार्य क्षेमकीर्ति ने लिखा 'श्रीमलयगिरिप्रभवो, यां कर्तुमुपाक्रामन्त मतिमंतः। सा कल्पशास्त्रटीका मयाऽनुसंधीयतेऽल्पधिया।' बृहत्कल्प पर लघुभाष्य और चूर्णि भी है। निशीथभाष्य और प्रस्तुत भाष्य की अनेक-अनेक गाथाएं समान हैं। टीका संयुक्त भाष्य का प्रकाशन मुनि पुण्यविजयजी ने टीका युक्त पूरे ग्रंथ को छह भागों में प्रकाशित किया है। उस संस्करण में पाठान्तरों का उल्लेख भी है। ८० पृष्ठों में पदानुक्रम दिया हुआ है, परन्तु वह इतना शुद्ध नहीं है। यत्र-तत्र त्रुटियां दृग्गोचर होती हैं। हमने पदानुक्रम को नए सिरे से तैयार किया है। इस ग्रंथ के अनुवाद कार्य में मुझे दो वर्ष और दस माह लगे। इस अवधि में यात्रा निरंतर चलती रही। प्रतिदिन विहार और नए-नए गांवों में निवास। पूरे यात्राकाल में अनुकूल स्थान मिलते या नहीं भी मिलते, परन्तु कार्य निरंतर चलता रहता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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