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________________ परिशिष्ट ३ आयुर्वेद एवं आरोग्य रोग की परीक्षा शीतलकूर तथा अम्लद्रव आदि से पारणा करता है, वह सही उपाय के अभाव में रोगमुक्त नहीं हो सकता, स्वस्थ नहीं हो सकता। सहसज्झो जत्तेणं, जत्तासज्झो असज्झवाही उ। जह रोगे पारिच्छा। (बृभा-२१९) यथा रोगे वैधेन परीक्षा क्रियते, यथा-एष सुखसाध्यः, एष यत्नेन साध्यः, एष चासाध्यव्याधिः यत्नेनाप्यसाध्यः। (बृभा वृ. पृ. ६९) सबसे पहले वैद्य रोग की परीक्षा करता है कि यह रोग सुखसाध्य है अथवा यत्नसाध्य ? यह व्याधि असाध्य है और प्रयत्न से भी असाध्य ही रहेगी। धातुक्षोभ से होने वाली अवस्था धन्वन्तरिकृत वैद्यक शास्त्र जागीव जहा महावेज्जो॥ (बृभा-९५९) योगी-धन्वन्तरिः, तेन च विभंगज्ञानबलेनाऽऽगामिनि काले प्राचुर्येण रोगसंभवं दृष्ट्वा अष्टाङ्गायुर्वेदरूपं वैद्यकशास्त्रं चक्रे, तच्च यथाम्नायं येनाधीतं स महावैद्य उच्यते। स च आयुर्वेदप्रामाण्येन क्रियां कुर्वाणो योगीव धन्वन्तरिरिव न दूषणभाग् भवति, यथोक्तक्रिया कारिणश्च तस्य तत् चिकित्साकर्म सिध्यति। (बृभा वृ. पृ. ३०२) योगी धन्वन्तरि ने अपने विभंगज्ञान से यह जाना कि आगामी काल में प्रचुर रोगों की उत्पत्ति होगी अतः उन्होंने अष्टांग वैद्यकशास्त्र का निरूपण किया। गुरु-परम्परा से उस शास्त्र का अध्ययन करने वाला महावैद्य कहलाता है। आयुर्वेद के प्रामाण्य के आधार पर क्रिया करता हुआ वह महावैद्य धन्वन्तरि की भांति निर्दोष होता है। शास्त्र के अनुसार क्रिया करने से उसका चिकित्सा कार्य सफल होता है। पित्तोदये मधुराभिलाषः...श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषः... पित्तश्लेष्मोदये मज्जिकाभिलाषः। (बृभा वृ. पृ. २६५) • पित्तोदय होने पर मधुर द्रव्यों को खाने की इच्छा होती है। • कफ की उग्रता होने पर अम्ल वस्तु की इच्छा जागृत होती है। पित्त और कफ दोनों के उदित होने पर 'मंजिका' की अभिलाषा होती है। पडिसिद्ध त्ति तिगिच्छा, जो उन कारेइ अभिनवे रोगे। किरियं सो उ न मुच्चइ, पच्छा जत्तेण वि करेंतो॥ सहसुप्पइअम्मि जरे, अट्ठम काऊण जो वि पारेइ। सीयल-अंबदवाणी, न ह पउणइ सो वि अणुवाया॥ (बृभा-९४७,९४८) कोई मुनि अभिनव रोग में यह सोचकर तत्काल चिकित्सा नहीं कराता कि मुनि के लिए चिकित्सा कराना प्रतिषिद्ध है, तब वह रोग के बढ़ने पर प्रयत्नपूर्वक चिकित्सा कराने पर भी रोग से युक्त नहीं हो सकता। तथा सहसा उत्पन्न ज्वर में तेले की तपस्या कर रोग और व्याधि के प्रकार गंडी-कोढ-खयाई, रोगो कासाइगो उ आयंको। दीहरुया वा रोगो, आतंको आसुघाती उ॥ (बृभा-१०२४) गण्डी-गण्डमालादिकः, कुष्ठं-पाण्डुरोगो गलत्कोष्ठं वा, क्षयः-राजयक्ष्मा, आदिशब्दात् श्लीपद-श्वयथु-गुल्मादिकः सर्वोऽपि रोग इति व्यपदिश्यते। कासादिकस्तु आतंकः, आदिग्रहणेन श्वास-शूल-हिक्का-ज्वराऽतीसारादिपरिग्रहः। (बृभा वृ. पृ. ३२२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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