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________________ तीसरा उद्देशक रूपक होता है। उत्तरापथ के दो रूपक पाटलिपुत्र के एक रूपक होता है। ३८९२. दो दक्खिणावहा तू, कंचीए णेलओ स दुगुणो य एगो कुसुमणगरगो, तेण पमाणं इमं होति ॥ दक्षिणापथ के दो रूपक कांचीपुरं का एक 'नेलक' (रूपक) होता है। ये दो नेलक कुसुमनगर (पाटलिपुत्र ) का एक रूपक होता है। इस प्रमाण से अठारह आदि (श्लोक ३८९०) उपरोक्त प्रमाण को जानना चाहिए। ३८९.३. अद्वारस वीसा या, अगुणापण्णा य पंच व सवाई। एगूणगं सहस्सं, दस पण्णासं सतसहस्सं ॥ ३८९४.चत्तारि छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं च होइ बोद्धव्वं । अणवट्टप्पो य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ॥ अठारह रूपक मूल्य का वस्त्र ग्रहण करने पर चतुर्लघु, बीस रूपक मूल्य का चतुर्गुरु, उनपचास रूपक का छहलघु, पांच सौ रूपक का षड्गुरु, नो सौ निन्यानवें रूपक का छेद, दश हजार का मूल, पचास हजार रूपक का अनवस्थाप्य, एक लाख रूपक का पारांचिक ये प्रायश्चित्त विहित हैं। ३८९५. अट्ठारस बीसा या सयमद्वाइज पंच य सयाहं । सहसं च दससहस्सा, पण्णास तधा सतसहस्सं ॥ ३८९६.लहुगो लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहुग गुरुगाय । छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो य पारंची ॥ अथवा अठारह रूपक लघुमास, बीस रूपक चतुर्लघु, सौ रूपक चतुर्गुरु, ढाई सौ रूपक षड्लघु, पांच सौ रूपक षड्गुरु, सहस्ररूपक छेद, दशसहस्ररूपक मूल, पचाससहस्ररूपक अनवस्थाप्य, लाख रूपक पारांचिक । ३८९७. अट्ठारस वीसा या, पण्णास तधा सयं सहस्सं च । पण्णासं च सहस्सा, तत्तो य भवे सबसहस्सं ॥ ३८९८. चउगुरुग छच्च लहु गुरू, छेदो मूलं च होति बोद्धव्वं । अणवट्टप्पो य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ॥ अथवा अठारहरूपक चतुर्गुरु, बीसरूपक षड्लघु, पचासरूपक षड्गुरु, सौरूपक छेद, सहस्ररूपक मूल, पचाससहस्र अनवस्थाप्य, शतसहस्र पारांचिक । ३८९९. अहवा रागसहगतो, वत्थं धारेति दोससहितो वा । एवं तु भावकसिणं, तिविहं परिणामणिप्फण्णं ॥ अथवा रागसहित या द्वेषसहित वस्त्र को धारण करना भावकृत्स्न है। यह परिणाम से निष्पन्न तीन प्रकार का है-राग-द्वेष के जघन्य परिणाम से जघन्य मध्यम परिणाम से मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम से उत्कृष्ट । Jain Education International ४०१ ३९००, भारो भय परियावण, पडिलेहाऽऽणालोवो, मणसंतावो उवायाणं ॥ द्रव्यकृत्स्न वस्त्र के ग्रहण में ये दोष होते हैं भार, चोरों का भय, उनके द्वारा परितापन, मारण और अधिकरण होता है। तथा क्षेत्रकृत्स्न तथा कालकृत्स्न उपधि का ग्रहण करने पर उसको कोई देख न ले, इसलिए यदि उसकी प्रत्युपेक्षा नहीं की जाती है तो आज्ञा का लोप होता है। देखते हुए प्रत्युपेक्षा करने पर कोई उसका अपहरण कर ले तो मानसिक संताप होता है अथवा शैक्ष आदि उसका अपहरण कर उत्प्रव्रजित हो जाता है। मारण अहिगरण दव्यकसिणम्मि ३९०१.गहणं च गोम्मिएहिं परितावण धोव कम्मबंधो य । ७ अन्ने वि तत्थ संभइ, तेणक ते वा अहव अन्ने ॥ कृत्स्नवस्त्र होने पर गौल्मिक-शुल्कपालक उसका ग्रहण करते हैं, उसको पकड़ लेते हैं, परितापना देते हैं, वे वस्त्र का स्वयं उपयोग कर उसको धोते हैं। उससे कर्मबंध होता है। वे गौल्मिक अन्य साधुओं को भी रोक कर परितापना देते हैं। वे ही गौल्मिक दूसरे मार्ग से स्तेन बन जाते हैं अथवा उनके द्वारा प्रेरित होकर दूसरे लोग अपहरण कर लेते हैं। ३९०२. भावकसिणम्मि दोसा ते च्चेव उ नवरि तेणदितो। देसी गिलाण जावोग्गहो उ दव्वम्मि बितियपयं ॥ भावकृत्स्न में भी वे ही दोष अर्थात् भार, भय और परितापन आदि होते हैं। इसमें स्तेन का दृष्टांत है । देशविशेष अथवा ग्लान को लक्षित कर सकलकृत्स्न और प्रमाणकृत्स्न भी लिया जा सकता है द्रव्यकृत्स्न में अपवादपद यह है कि जब तक आचार्य के समक्ष वस्वावग्रह अनुज्ञापित नहीं किया जाता, तब तक उसकी किनारी न काटी जाए । ३९०३. उवसामिओ णरिंदो कंबलरयणेहिं छंदए गच्छं । For Private & Personal Use Only णिब्बंध एगगहणं, णिववयणे पाउतो णीति ॥ ३९०४. तेणाऽऽलोग णिसिज्जा, रत्तिं तेणागमो गुरुग्गहणं । दरिसणमपत्तियंते, सिव्वावणया य रोसेणं ॥ एक आचार्य ने राजा को उपशांत किया। राजा ने समस्त गच्छ के मुनियों को रत्नकंबल देने के लिए आचार्य को निवेदन किया। राजा के अत्यधिक आग्रह करने पर एक रत्नकंबल लिया और उससे प्रावृत होकर वहां से निकले । चोर ने यह देख लिया। आचार्य ने वसति में आकर उस रत्नकंबल को फाड़कर निषद्याएं बना लीं। रात्री में चोर वहां आया और आचार्य को पकड़ कर रत्नकंबल देने के लिए www.jainelibrary.org.
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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