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________________ ४७६ ४६१९. बलि धम्मकहा किडा, पमज्जणाऽऽवरिसणा य पाहुडिया। खंधार अगणि भंगे, मालवलेणा य नाई य॥ वसति को शून्य छोड़ने से ये दोष होते हैं- शय्यातर का मिथ्यात्वगमन, बटुक, चारण और भट का प्रवेश, पशु और मनुष्य का मरण, प्राघूर्णक और व्याल का प्रवेश, बेघर वाले तिर्यच और प्रसूत स्त्रियों का निष्कासन | निम्न द्वारों से वे दोष वक्तव्य हैं १. बलिद्वार २. धर्मकथाद्वार ३. क्रीड़ाद्वार ४. प्रमार्जनद्वार ५. आवर्षणद्वार ७. स्कंधावारद्वार ८. अग्निद्वार ९. भंगद्वार १०. मालवस्तेनद्वार ११. ज्ञातिद्वार । ' ६. प्राभृतिकाद्वार ४६२०. संथारविप्पणासो, एवं खु न विज्जतीति चोएति । सुत्तं होइ य अफलं, अह सफलं उभयहा दोसा ॥ दूसरा कहता है इस प्रकार वसति को सुरक्षित करने पर संस्तारक का विनाश नहीं होगा इससे प्रस्तुत सूत्र अफल हो जाएगा। बाल आदि दोषरहित वसतिपाल स्थापनीय यह भी अफल हो जाएगा। उभयथा भी दोष होते हैं। ४६२१. निज्जताऽऽणिज्जंता, आवावणनीणितो व हीरेज्जा | ते ऽगणि- उदगसंभम, बोहिकभय रट्ठउट्ठाणे ॥ प्रत्यर्पण के लिए संस्तारक को ले जाते हुए अथवा गृहस्थ के घर से लाते हुए कोई अपहरण कर लेता है। संस्तारक को धूप में देने के लिए बाहर निकालने पर कोई अपहरण कर लेता है। स्तेनों द्वारा या उदक और अग्नि के संभ्रम में अथवा बोधिक चोरों के भय से देश उजड़ गया हो तो संस्तारक का हरण हो सकता है। Jain Education International ४६२२. पडिसेहेण व लदो पडिलेहणमादिविरहिते गहणं । अणुसट्ठी धम्मकहा, वल्लभो वा निमित्तेणं ॥ गृहस्वामी ने संस्तारक का प्रतिषेध कर डाला, फिर दूसरे के कहने से वह उसे प्राप्त हुआ। वह मुनि उस संस्तारक को प्रत्युपेक्षण करने के लिए बाहर ले गया। वहां से उसे बाहर छोड़कर भीतर गया। उसके विरहित होने पर कोई उसे उठा ले गया। वह मांगने पर भी नहीं लौटाता । तब उसे धर्मकथा कहनी चाहिए। वह व्यक्ति यदि राजवल्लभ हो तो उसे निमित्त आदि से प्रसन्न करना चाहिए। १. देखें- पीठिका गाथा ५५४ - ५६४ पर्यन्त अनुवाद | बृहत्कल्पभाष्यम् ४६२३. दिन्नो भवबिहेणेव एस णारिहसि णे ण दाडं जे। अन्नो वि ताव देयो, दे जाणमजाणयाऽऽणीयं ॥ उसको कहे- तुम जैसे विशिष्ट व्यक्ति ने ही हमें यह संस्तारक दिया। इसलिए हम इसे दे नहीं सकते। तुमको दूसरा कोई भी संस्तारक दे देगा। दूसरे द्वारा हमको दिया गया इस संस्तारक से क्या प्रयोजन? तुम जानते हुए या अजानकारी से भी वह हमें लाकर दो । ४६२४. मंत णिमित्तं पुण रायवल्लभे दमग भेसणमदेते। धम्मका पुण दोसु वि, जति अवराहो दुहा वऽधिओ ॥ राजवल्लभ के प्रति मंत्र या निमित्त का प्रयोग करे और दमक को भय दिखाए और फिर दोनों को धर्मकथा कहे। यतियों के प्रति किया गया अपराध दोनों लोकों के लिए अहितकर होता है। ऐसा धर्मोपदेश दे। 3 ४६२५. अन्नं पि ताव तेनं इह परलोकेऽपहारिणामहियं । परओ जायितलब्द्धं, किं पुण मन्नुप्पहरणेसु ॥ सामान्य लोगों की चोरी भी परलोक में चोरों के प्रति अहितकारी होती है, फिर यतियों की चोरी तो बहुत अहित पैदा करती है ऋषि 'मन्युपहरणा' होते हैं। उनका एकमात्र शस्त्र है-मन्यु-क्रोध इन ऋषियों को सब कुछ दूसरों से याचित ही मिलता है, इसलिए उनकी चोरी करना इहलोक के लिए अहितकर होती है। ४६२६. खते व भूणए वा, भोइग जामाउगे असइ साहे। सिम्म जं कुणइ सो, मग्गण दाणं व ववहारे ॥ पिता द्वारा संस्तारक लिए जाने पर पुत्र को कहा जाता है। और पुत्र द्वारा लिए जाने पर पिता को कहा जाता है। अथवा उसकी भार्या को या जामाता को कहना चाहिए। इतने पर भी यदि नहीं देते हों तो महत्तर आदि तक बात पहुंचानी चाहिए। न मिलने पर संस्तारक स्वामी को उस संस्तारक का 'दान' मूल्य देना या फिर न्यायालय में जाना चाहिए। ४६२७. भूणगगहिए खंतं, भणाइ खंतगहिते य से पुत्तं । असति त्ति न देमाणे, कुणति दवावेति व न वा उ ॥ पुत्र द्वारा गृहीत होने पर पिता को कहना होता है और पिता द्वारा गृहीत होने पर पुत्र को कहना होता है। यदि नहीं देते हैं तो भोजिक आदि को कहना पड़ता है। यदि वे भय पैदा कर दिला देते हैं तो अच्छा, न दिलाएं तो भी वे ही प्रमाण होते हैं। ४६२८. भोइय उत्तरउत्तर, नेयव्वं जाव पच्छिमो दाणं विसज्जणं वा विद्रुमदि इमं पहले भोजिक को, फिर देश के आरक्षक को यावद ', For Private & Personal Use Only राया । होइ ॥ www.jainelibrary.org.
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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