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________________ ६३८ बृहत्कल्पभाष्यम् बार अलीक बोलने से मासलघु। दूसरी बार मासगुरु। तीसरी बार दूसरे साधु को दिखाया, फिर भी वह अलीक कहता है तो चतुर्लघु और अनेक साधुओं के कहने पर भी स्वीकार न करने पर चतुर्गुरु। ६०६९.निण्हवणे निण्हवणे, पच्छित्तं वड्डए य जा सपयं। ___ लहु-गुरुमासो सुहुमो, लहुगादी बायरो होति॥ इस प्रकार बार-बार अलीक बोलने पर प्रायश्चित्त बढ़ता है-स्वपद अर्थात् पारांचिक पर्यन्त। जैसे-पांचवीं बार अलीक कहने पर षड्लघु, छठी बार षड्गुरु, सातवीं बार छेद, आठवीं बार मूल, नौवीं बार अनवस्थाप्य, दसवीं बार पारांचिक। प्रस्तुत प्रसंग में जहां-जहां लघुमास या गुरुमास है, वहां-वहां सूक्ष्म मृषावाद है और जहां चतुर्लघुक आदि है वहां बादर मृषावाद है। ६०७०.किं नीसि वासमाणे, ण णीमि नणु वासबिंदवो एए। __ भुंजंति णीह मरुगा, कहिं ति नणु सव्वगेहेसु॥ वर्षा बरस रही है। मुनि कहीं जाने के लिए प्रस्थित हुआ। दूसरे साधु ने कहा-'अरे! बरसात में कहां जा रहे हो? उसने कहा बरसात में नहीं जा रहा हूं। ये वर्षा के बिन्दु हैं। 'वासति' धातु का अर्थ है-शब्द करना। शब्द होता हो तब जाने की मनाही है। मैं जा रहा हूं, कोई शब्द नहीं हो रहा है। छल से प्रत्युत्तर देने पर प्रथम बार, द्वितीय बार आदि में प्रायश्चित्त पूर्ववत्। एक साधु ने बाहर से उपाश्रय में आकर कहा-साधुओं! उठो, वहां जाओ जहां ब्राह्मण भोजन करते हैं। साधु उठे, हाथों में पात्र लेकर भिक्षाचर्या के लिए निकले। उस साधु से पूछा-वे ब्राह्मण कहां भोजन कर रहे हैं? उसने कहा-'सभी अपने-अपने घरों में। इस प्रकार छल से उत्तर देना।' ६०७१. जसु पच्चक्खातं, महं ति तक्खण प जिओ पुट्ठो। किं व ण मे पंचविहा, पच्चक्खाया अविरई उ॥ एक साधु ने दूसरे साधु से कहा-भोजन कर लो। उसने कहा-मैंने प्रत्याख्यान कर लिया है। तत्क्षण वह भोजनमंडली में गया और भोजन करने लगा। साधु ने पूछा-'आर्य! तुमने तो कहा था कि मैंने प्रत्याख्यान कर लिया है।' वह बोला-'क्या मैंने पांच प्रकार की अविरति का प्रत्याख्यान नहीं किया है?' ६०७२.वच्चसि नाहं वच्चे, तक्खण वच्चंति पुच्छिओ भणइ। सिद्धंतं न विजाणसि, नणु गम्मइ गम्ममाणं तु॥ एक साधु ने दूसरे से पूछा-क्या चलोगे? नहीं, मैं नहीं चलूंगा। तत्क्षण वह चलने लगा। पूछने पर बोला-'तुम सिद्धांत को नहीं जानते-'गम्यमानमेव गम्यते नागम्यमानम्'चलने वाला ही चलता है, नहीं चलने वाला नहीं। जब तुमने मुझे पूछा तब मैं गम्यमान नहीं था।' ६०७३.दस एयस्स य मज्झ य, पुच्छिय परियाग बेइ उ छलेण। मम नव पवंदियम्मि, भणाइ बे पंचगा दस उ॥ दो साधु खड़े थे। तीसरा साधु आया। पूछा-आपका संयम-पर्याय कितना है। एक ने कहा-इसका और मेरा दस वर्ष का संयमपर्याय है। इस प्रकार उसने छल से उत्तर दिया। आगंतुक ने कहा-मेरा संयमपर्याय नौ वर्ष का है। वह वंदना करने लगा। तब उससे कहा-मेरा संयमपर्याय पांच वर्ष का और इसका पांच वर्ष का, दोनों को मिलाने पर दस होते हैं। इसलिए आप हम दोनों के लिए वंदनीय हैं। ६०७४.वट्टइ उ समुद्देसो, किं अच्छह कत्थ एस गगणम्मि। वटुंति संखडीओ, घरेसु णणु आउखंडणया।। एक साधु ने उपाश्रय में आकर अपने साथी साधुओं से कहा-आज समुद्देश है। ऐसे ही क्यों बैठे हो? इतना सुनते ही वे साधु गोचरचर्या के लिए उठे और उससे पूछा-कहां है समुद्देश? उसने कहा-गगनमार्ग में देखो, आज सूर्यग्रहण है। एक साधु ने उपाश्रय में आकर कहा-यहां प्रचुर संखड़ियां हैं। मुनियों ने गोचरी जाने की तैयारी की और उससे पूछा-कहां हैं संखड़ियां? उसने कहा-घर-घर में संखड़ी है। कैसे? घर-घर में आयुष्य का खंडन होता है, प्राणी मारे जाते हैं। ६०७५.खुड्डग! जणणी ते मता, परुण्णो जियइ त्ति अण्ण भणितम्मि। माइत्ता सव्वजिया, भविंसु तेणेस ते माता। एक साधु उपाश्रय में आकर एक क्षुल्लक साधु से बोला-क्षुल्लक! तुम्हारी जननी मर गई। क्षुल्लक रोने लगा। तब वह साधु बोला-अरे! रोते क्यों हो? तुम्हारी मां जीवित है। तब दूसरे साधुओं ने कहा-तुमने ही तो कहा था कि जननी मर गई है। तब वह बोला-मैंने ठीक ही कहा था। यह जो कुतिया मर गई, वह इसकी माता होती है। कैसे? अतीत में सभी जीव मातृत्वरूप में थे। इसलिए यह इसकी माता है। ६०७६.ओसण्णे दट्टणं, दिट्ठा परिहारिग त्ति लहु कहणे। कत्थुज्जाणे गुरुओ, वयंत-दिद्वेसु लहु-गुरुगा। ९/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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