SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा उद्देशक अवयण-पदं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इमाई छ अवयणाई वइत्तए, तं जहा-अलियवयणे हीलियवयणे खिसियवयणे फरुसवयणे गारत्थियवयणे विओसवियं वा पुणो उदीरित्तए॥ (सूत्र १) ६०६०.कारणे गंधपुलागं, पाउं पलविज्ज मा हु सक्खीवा। ___ इइ पंचम-छट्ठाणं, थेरा संबंधमिच्छंति॥ कोई साध्वी कारणवश गंधपुलाक पीकर मद से उन्मत्त होकर अलीक आदि वचनों का प्रलाप न करे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का प्रारंभ है। इस प्रकार पांचवें और छठे उद्देशक का संबंध स्थविर 'श्री भद्रबाहस्वामी' चाहते हैं। ६०६१.दुचरिमसुत्ते वुत्तं, वादं परिहारिओ करेमाणो। बुद्धी परिभूय परे, सिद्धंतावेत संबंधो॥ पांचवें उद्देशक के दो चरिय सूत्रों में पारिहारिक मुनि वाद करता हुआ परवादी की बुद्धि को पराजित कर सिद्धांत से हटकर भी वचन कहता है, परंतु सूत्रगत छह वचनों को छोड़कर। यह प्रकारान्तर से संबंध है। ६०६२.दिव्वेहिं छंदिओ हं, भोगेहिं निच्छिया मए ते य। ___ इति गारवेण अलियं, वइज्ज आईय संबंधो॥ __ कोई मुनि गुरु के पास आकर कहता है-दिव्य भोगों के लिए मैं निमंत्रित हुआ, परन्तु मैंने उन भोगों की इच्छा नहीं की। इस प्रकार स्वयं के गौरव के लिए उसने झूठ बोल दिया। दोनों उद्देशकों के आदि सूत्र का यह संबंध है। ६०६३.छ च्चेव अवत्तव्वा, अलिगे हीला य खिंस फरुसे य। गारस्थ विओसविए, तेसिं च परूवणा इणमो।। ये छह प्रकार के वचन अवक्तव्य हैं। अलीकवचन, १. प्रचलायते-उपविष्टः सन निद्रायत इत्यर्थः। (वृ. पृ. १६०३) हीलितवचन, खिंसितवचन, परुषवचन, गृहस्थवचन, व्यवशमित-उदीरितवचन। इनका प्ररूपणा इस प्रकार है। ६०६४.वत्ता वयणिज्जो या, जेसु य ठाणेसु जा विसोही य। जे य भणओ अवाया, सप्पडिक्खा उ णेयव्वा॥ अलीक वचन बोलने वाला वक्ता, वचनीय–जिसको उद्दिष्ट कर अलीकवचन बोला जाता है, जिन-जिन स्थानों में वह वचन अलीक होता है, जैसी उनकी शोधि-प्रायश्चित्त होता है, अलीक बोलने के जो-जो अपाय हैं, उनके जो अपवाद हैं ये सब कथनीय हैं। ६०६५.आयरिए अभिसेगे, भिक्खुम्मि य थेरए य खुड्डे य। गुरुगा लहुगा गुरु लहु, भिण्णे पडिलोम बिइएणं॥ आचार्य आचार्य को अलीक कहता है चतुर्गुरु, आचार्य अभिषेक को अलीक कहता है चतुर्लघु, आचार्य भिक्षु को अलीक कहता है मासगुरु, आचार्य स्थविर को अलीक कहता है मासलघु और आचार्य क्षुल्लक को अलीक कहता है भिन्नमास। द्वितीय आदेश के अनुसार यही प्रायश्चित्त प्रतिलोमरूप में वक्तव्य है। ६०६६.पयला उल्ले मरुए, पच्चक्खाणे य गमण परियाए। समुद्देस संखडीओ, खुड्डग परिहारिय मुहीओ। समुदस सख ६०६७.अवस्सगमणं दिसासुं, एगकुले चेव एगदव्वे य। पडियाखित्ता गमणं, पडियाखित्ता य भुंजणयं॥? अलीकवचन के स्थान-प्रचला, आर्द्र, मरुक, प्रत्याख्यान, गमन, पर्याय, समुद्देश, संखड़ी, क्षुल्लक, पारिहारिक, घोटकमुखी, अवश्यगमन, दिशा, एककुल, एकद्रव्य, प्रत्याख्यायगमन, प्रत्याख्यायभोजन। (ये द्वारगाथा हैं। विवरण आगे की गाथाओं में) ६०६८.पयलासि किं दिवा ण पयलामि, लहु दुच्चनिण्हवे गुरुगो। अन्नदाइत निण्हवे, लहुगा गुरुगा बहुतराणं॥ एक साधु दिन में बैठे-बैठे नींद ले रहा था। दूसरे साधु ने कहा-नींद ले रहे हो? उसने कहा नहीं। इस प्रकार प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy