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४७८ ४६३९.पुढवी आउक्काए, अगड वणस्स्इ-तसेसु साहरइ।
__घित्तूण य दायव्वो, अदिट्ठ दड्ढे य दोच्चं पि॥
कोई प्रत्यनीक साधु उस संस्तारक को सचित्त पृथ्वीकाय पर, अप्काय पर, वनस्पतिकाय पर या त्रस प्राणियों पर अथवा गर्ता में निक्षिप्त कर देता है, इसलिए कि स्वामी वहां से ग्रहण न कर सके। वहां पर निक्षिप्त संस्तारक वहां से ग्रहण करके भी मूल स्वामी को देना चाहिए। गवेषणा करने पर भी न मिला अथवा जला दिया गया-इन दोनों अवस्थाओं में दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञापना लेनी चाहिए। ४६४०.दिद्रुत पडिहणेत्ता, जयणाए भद्दतो विसज्जेती।
__ मग्गंते जयणाए, उवहिग्गहणे ततो विवाओ॥
दृष्टांत अर्थात् नोदक ने अपनी मति से जो अभिप्राय देखा है उसका निराकरण कर संस्तारक स्वामी के समक्ष यतनापूर्वक यथार्थ बात कहनी चाहिए। बात सुनकर वह भद्रक मुनियों से कहता है-आप जाएं। मैं कुछ भी नहीं कहूंगा। कोई प्रान्त संस्तारक स्वामी हो और वह संस्तारक की मार्गणा करे तो यतनापूर्वक प्रान्त उपधि देकर उसे संतुष्ट करना चाहिए। यदि वह बलपूर्वक सार-उपधि ग्रहण करता है तो राजकुल में विवाद ले जाना चाहिए। ४६४१.परवयणाऽऽउट्टेउं, संथारं देहि तं तु गुरु एवं।
आणेह भणति पंतो, तो णं दाहं ण दाहं वा॥ यहां पर प्रेरक का कथन है कि उस प्रान्त संस्तारक स्वामी को धर्मकथा से अनुकूल करना चाहिए। यदि मुनि उस संस्तारक स्वामी को कहता है कि उस संस्तारक को हमें निर्देजरूप (अप्रत्यर्पणीयरूप) में दे दो। यह माया है। गुरु कहते हैं-इसका प्रायश्चित्त है-चतुर्गुरुक! प्रान्त स्वामी कहता है-वह संस्तारक लाओ, फिर देखूगा कि उसे दूं या न दूं। ४६४२.दिज्जंतो वि न गहिओ,
किं सुहसेज्जो इयाणि सो जाओ। हिय नट्ठो वा नूणं,
अथक्कजायाइ सूएमो॥ मैं उस समय संस्तारक दे रहा था, उस समय आपने लिया नहीं, क्या अब वह सुखशय्या हो गया है। इस अथक्कयांचा अकालप्रार्थना से यह अनुमान होता है कि वह नष्ट हो गया है अथवा अपहृत हो गया है। ४६४३.भद्दो पुण अग्गहणं, जाणंतो वा वि विप्परिणमेज्जा।
किं फुडमेव न सीसइ, इमे हु अन्ने वि संथारा॥ जो भद्रक संस्तारक स्वामी होता है वह साधुओं की मायापूर्ण प्रवृत्ति से विपरिणत होकर अग्रहण-अनादर करता
बृहत्कल्पभाष्यम् है। वह जानता है कि संस्तारक हृत या नष्ट हो गया है। परंतु मुनियों द्वारा माया किए जाने पर वह विपरिणत हो जाता है और कहता है-आप स्पष्टतया हमें क्यों नहीं कहते कि संस्तारक हृत या नष्ट हो गया है ? मायापूर्वक याचना क्यों करते हैं? ये तथा अन्य संस्तारक भी हैं। ४६४४.इइ चोयगदिद्वंतं, पडिहतुं सिस्सते से सम्भावो।
भद्दो सो मम नट्ठो, मग्गामि न तो पुणो दाहं।। इस प्रकार नोदक दृष्टांत अर्थात् पराभिप्राय का खंडन कर संस्तारक स्वामी को सद्भाव का कथन करते हैं। भद्रक तब कहता है-वह संस्तारक मेरा नष्ट हुआ है, आपका नहीं। आज से मैं उसे नहीं मांगूंगा। यदि वह मिल गया तो मैं उसे पुनः आपको ही दूंगा। ४६४५.तुब्भे वि ताव मग्गह, अहं पि झोसेमि मग्गह व अन्नं ।
नढे वि तुब्भऽणट्ठा, वदंति पंतेऽणुसट्ठादी॥ वह कहता है-आप भी उसकी खोज करें। मैं भी 'झोसेमि' अन्वेषण कर रहा हूं। आपको संस्तारक का प्रयोजन भी है, इसलिए आप दूसरा संस्तारक ले लें। प्रान्त कहता है, आप कहते हैं हमारा संस्तारक नष्ट नहीं हुआ है, परंतु उस संस्तारक को लाएं या उसका मूल्य चुकाएं। तब प्रान्त के प्रति अनुशिष्टि आदि का प्रयोग करना चाहिए। ४६४६.मोल्लं णत्थऽहिरण्णा, उवधिं मे देह पंतदायणया।
अन्नं व देति फलगं, जयणाए मग्गिउं तस्स॥ तब कहे-हम अहिरण्य हैं। हमारे पास मूल्य नहीं है। वह कहता है-मुझे उपधि दो। तब उसे उस साधु के अन्तप्रान्त उपधि बताने चाहिए। अन्य फलक यतनापूर्वक लाकर देना चाहिए। ४६४७.सव्वे वि तत्थ रुंभति, भद्दो मुल्लेण जाव अवरहे।
एगं ठवेउ गमणं, सो वि य जावऽट्ठमं काउं॥ कोई समर्थ हो तो वह सभी साधुओं को रोक देता है। जो कोई भद्रक श्रावक मूल्य देकर छुड़ाता है तो उसका प्रतिषेध नहीं करना चाहिए। यदि मुक्त नहीं करता है तो अपराह्न तक सभी मुनि वहीं रहे। यदि नहीं छोड़ता है तो एक क्षपक को वहां रखकर सभी चले जाएं। ऐसे को वहां स्थापित करना चाहिए जो अष्टम कर सकता है। वह अष्टम कर चला जाता है। ४६४८.लद्धे तीरियकज्जा, तस्सेवऽप्येति अहव भुंजंति।
पभुलद्धे वसमत्ते, दोच्चोग्गह तस्स मूलाओ। संस्तारक प्राप्त हो जाने पर मुनि का प्रयोजन समाप्त हो जाता है। वे उस संस्तारक के मूल स्वामी को अर्पित कर देते हैं। अथवा उस संस्तारक का उपभोग करते हैं। जब
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