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________________ चौथा उद्देशक जाता अर्थात् उसके पास यथाजात उपकरण नहीं रखे जाते। देवलोक में जाने के पश्चात् देवता एक अन्तर्मुहूर्त में उपयोग लगाता है। उस उपयोगाद्धा को जानकर इतने समय तक उसको उपाश्रय में ही रखते हैं। ५५५४. अवरज्जुगस्स य ततो, सुत्त ऽत्थविसारएहिं थेरेहिं । अवलोयण कायव्वा, सुभा ऽसुभगती निमित्तट्ठा ॥ दूसरे दिन सूत्रार्थं विशारद स्थविरों को उस कालगत मुनि की शुभ-अशुभ गति के निमित्त को जानने के लिए उसका अवलोकन अवश्य करना चाहिए। ५५५५. दिसि विहितो खलु देहेणं अक्खुएण संचिक्ले । जं तं दिसि सिवं वदंती सुत्त उत्थविसारया धीरा ॥ जिस दिशा में वह अशिव आदि से मृत मुनि अक्षत देह से स्थित है उस दिशा में सुभिक्ष होता है, ऐसा सूत्रार्थ विशारद धीर मुनि कहते हैं। ५५५६. जति दिवसे संचिक्खति, विवरीए विवरीतं, अकड्डिए सव्वहिं उदितं ॥ जितने दिन उसको जिस दिशा में रखा जाता है उस दिशा में उतने वर्षों तक सुभिक्ष और मंगल होता है विपरीत 1 अर्थात् क्षतदेह होने पर विपरीत परिणाम आता है। जिस दिशा में क्षतदेह रखा जाता है, उस दिशा में दुर्भिक्ष होता है । अथवा उसे अन्यत्र न ले जाकर नहीं रखा जाता है तो सर्वत्र उदित अर्थात् सुभिक्ष होता है। ५५५७, खमगस्साऽऽयरियस्सा, तति वरिसे धातगं च खेमं च। दीडपरिण्णस्स वा निमित्तं तू । सेसे तथऽण्णधा वा, ववहारवसा इमा य गती ॥ यह क्षपक, आचार्य तथा दीर्घ अनशनी के निमित्त होता है। इनसे व्यतिरिक्त शेष के ऐसे भी हो सकता है और अन्यथा भी हो सकता है। व्यवहारतः ऐसी गति भी हो सकती है। ५५५८. थलकरणे वेमाणितो, जोतिसिओ वाणमंतर समम्मि । गट्टाए भवणवासी, एस गती से समासेणं ॥ यदि उसके शरीर को स्थल में रखा है तो वह वैमानिक देव बना है तथा समभूभाग में है तो ज्योतिष्क या व्यन्तरदेव बना है, गढ़े में हो तो भवनपति देव यह संक्षेप में उसकी गति का वर्णन है। ५५५९. एमम्मि उ ठाणे, हुति विवच्चासकारणे गुरुगा। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा - ऽऽयाए ॥ Jain Education International ५७५ इस प्रकार एक-एक स्थान में विपर्यास करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा आत्मा और संयम की विराधना होती है। ५५६०. एतेण सुत्त न गतं सुत्तनिवातो तु दव्व सागारे । उडवणम्मि वि लहुगा, छट्टणे लहुगा अतियणे य ॥ यह जो द्वारों की व्याख्या की गई है, उससे सूत्र व्यर्थ नहीं हुआ है। यह सारा सामाचारी को बताने के लिए किया है सूत्र-निपात गृहस्थ के अधीनस्थ शव वहनकाष्ट के लिए है उसके लिए गृहस्थ को जगाने पर चतुर्लघु वहनकाष्ठ को वहीं छोड़ देने पर भी चतुर्लघु और यदि गृहस्थ के कलह करने पर, उसको लाकर अतिगमन-प्रवेश करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। ५५६१. मिच्छत्तविन्नवाणं, समलावण्णो दुगुंछितं चेव । दिय रातो आसितावण, वोच्छेओ होति बसहीए ॥ गृहस्थ वहनकाष्ठ को पुनः अर्पित किए जाने पर मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। उसके मन में यह आशंका होती है कि ये श्रमण अदत्त को ग्रहण करने वाले हैं मलिन रहने वाले हैं, इस प्रकार उनका अवर्णवाद होता है। उनसे जुगुप्सा करते हैं। अतः रात हो या दिन मृतक का असियावण- निष्काशन कर देना चाहिए। वे गृहस्थ श्रमणों के लिए वसति का व्यवच्छेद कर सकते हैं कि ये मृतक को वहन कर वह काष्ठ मेरे घर में लाये हैं । ५५६२. अइगमणं एगेणं, अण्णाए पति वेति तत्येव । अलोम तस्स वयण बितियं उट्ठाण असिवे वा ॥ वहनकाष्ठ लाने की विधि सर्वप्रथम एक मुनि उस गृहस्थ के घर में जाए जहां वहनकाष्ठ पड़ा हो। गृहस्थ अभी सो रहा हो तो उसको जगाए बिना उसकी अज्ञात अवस्था में ले आए और प्रयोजन संपन्न हो जाने पर उसे वहीं रख दे । गृहस्थ को जब ज्ञात हो कि वहनकाष्ठ को पुनः लाकर रख दिया है, और वह यदि कुपित हो जाए तो उसे अनुकूल वचनों से शांत करे। यदि वह शांत न हो और बोलता ही रहे तो गुरु उस साधु को निष्काशित कर दे । अपवादपद में अशिव के कारण शाम खाली हो गया हो तो वहनकाष्ठ को वहीं विसर्जित कर दे, सागारिक को प्रत्यर्पित न करे। ५५६३.जइ नीयमणापुच्छा, आणिज्जति किं पुणो घरं मज्झ । दुगुणो एसऽवराधो, ण एस पाणालओ भगवं ! ॥ सागारिक कहे कि तुम यह वहनकाष्ठ मुझे बिना पूछे ले For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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