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________________ ५७४ = बृहत्कल्पभाष्यम् ५५४३. वच्चंते जो उ कमो, कलेवरपवेसणम्मि वोच्चत्थो। शव की परिष्ठापना कर मुनि उपाश्रय में लौट आते हैं। वे __णवरं पुण णाणत्तं, गामदारम्मि बोद्धव्वं ॥ चैत्यगृह में या उपाश्रय में जाकर संपूर्ण स्तुतियों का पाठ ले जाते समय कलेवर के उत्थान का जो क्रम कहा है करते हैं। उससे पूर्व वसतिपाल संपूर्ण वसति का प्रमार्जन वहीं क्रम विपर्यस्तरूप में परिष्ठापित कलेवर में पुनः प्रवेशन कर देता है तथा और भी अन्य सारे कृत्य संपन्न करता है। वे का क्रम जानना चाहिए। इसमें नानात्व अर्थात् विशेष यह है मुनि गुरु के समीप अविधिपरिष्ठापना के निमित्त कायोत्सर्ग कि ग्रामद्वार में उत्थान करने पर ग्राम त्याग ही करना है, करते हैं। मंगल और शांति के निमित्त अजितनाथ और विपरीत कुछ नहीं। शांतिनाथ की स्तवना करते हैं। ५५४४.बिइयं वसहिमतिते, तगं च अण्णं च मुच्चते रज्जं। ५५५०.खमणे य असज्झाए, तिप्पभितिं तिन्नेव उ, मुयंति रज्जाइं पविसंते॥ रातिणिय महाणिणाय णितए वा। निर्मूढ़ शव यदि दूसरी बार वसति में प्रवेश करता है तो सेसेसु णत्थि खमणं, उस राज्य का तथा अन्य राज्य को भी छोड़ देना चाहिए। व असज्झाइयं होइ॥ यदि तीन, चार या अनेक बार वसति में प्रवेश करता है तो यदि कालगत मुनि रात्निक है या लोकविश्रुत है और तीन राज्यों का त्याग कर देना चाहिए। उसके अनेक निजक-बंधु वहां रहते हों और वे बहुत शोक५५४५.असिवाई बहिया कारणेहिं, विलाप कर रहे हों तो ऐसे मुनियों के लिए क्षपण और तत्थेव वसंति जस्स जो उ तवो। अस्वाध्यायिक करे। शेष साधुओं के कालगत होने पर क्षपण अभिगहिया-ऽणभिगहितो, और अस्वाध्यायिक नहीं होती। सा तस्स उ जोगपरिवुड्डी॥ ५५५१.उच्चार-पासवण-खेलमत्तगा य यदि अशिव आदि कारणों से बाहर नहीं जाया जा सकता अत्थरण कुस-पलालादी। तो वहीं रहते हुए जिस मुनि की अभिगृहीत या अनभिगृहीत संथारया बहुविधा, तपस्या चल रही है, वह उसकी वृद्धि करे। यह योगपरिवृद्धि उज्झंति अणण्णगेलन्ने॥ कही जाती है। उस कालगत मुनि के उच्चार-प्रस्रवण तथा खेल के ५५४६.अण्णाइट्ठसरीरे, पंता वा देवतऽत्थ उट्ठिज्जा। मात्रक जितने हों उनको तथा बिछाने के लिए कुश-पलाल काईय डब्बहत्थेण, भणेज्ज मा गुज्झया! मुज्झा॥ आदि के बहुविध संस्तारक हों, उनको परिष्ठापित कर देना इतना करने पर भी यदि शव अन्य व्यन्तर आदि देव चाहिए। यदि कोई अन्य ग्लान न हो तो उन पात्र आदि को से आविष्ट हो जाए, प्रांत देवता-प्रत्यनीक देवता उस विसर्जित कर दे, अन्य ग्लान के शरीर में प्रविष्ट हो जाए और शव उठ जाए तो बाएं हाथ में उनको धारण करे। परिणामिनी-प्रस्रवण लेकर उस कलेवर का सेचन करे और ५५५२.अहिगरणं मा होहिति, करेइ संथारगं विकरणं तु। कहे-'गुह्यक! जागो, जागो! प्रमाद मत करो। संस्तारक से सव्वुवहि विगिंचंती, जो छेवइतस्स छित्तो वि॥ मत उठो।' 'छेवइय'-अशिव में गृहीत कोई मुनि कालगत हो जाए ५५४७.गिण्हइ णामं एगस्स दोण्ह अहवा वि होज्ज सव्वेहि। तो उसे जिस संस्तारक से ले जाया जाता है, उसका खिप्पं तु लोयकरणं, परिण्ण गणभेद बारसमं॥ विकिरण-खंड-खंड कर परिष्ठापन कर देना चाहिए। उसके वह कलेवर एक, दो मुनियों का या सभी मुनियों का सारे उपकरणों का परिष्ठापन कर देना चाहिए। तथा उस नाम ले, तो सबको लुंचन करना चाहिए। लुंचन शीघ्रता । कालगत मुनि की उपधि को या उसके शरीर से जो उपधि से कर उनको तप द्वादशरूप-उपवास पंचक कराना स्पृष्ट है, उस सबको परिष्ठापित कर देना चाहिए। चाहिए। वे मुनि गणभेद भी कर सकते हैं, गण से बहिरभूत ५५५३.असिवम्मि णत्थि खमणं, हो सकते हैं। जोगविवड्डी य व उस्सग्गो। ५५४८.चेइघरुवस्सए वा, हायंतीतो थुतीओ तो बिंति। उवयोगद्धं तुलितुं, सारवणं वसहीए, करेति सव्वं वसहिपालो॥ णेव अहाजायकरणं तु॥ ५५४९.अविधिपरिट्ठवणाए, काउस्सग्गो य गुरुसमीवम्मि। अशिव में मृत मुनि के लिए क्षपण नहीं होता। योगवृद्धि मंगल-संतिनिमित्तं, थओ तओ अजितसंतीणं॥ होती है। कायोत्सर्ग नहीं होता। उसकी यथाजात नहीं किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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