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________________ चौथा उद्देशक पिकाले पायच्छित्त-पदं ४८८१.तह वि य अठायमाणे, तिरिक्खमाईसु होइ मेहुन्नं । निसिभत्तं गिरिजण्णे, अरुणम्मि व दुद्धमाईयं। तओ अणुग्घाइया पण्णत्ता, तं वजिका में निवास करने वाले मुनि उपचितमांस वाले जहा-हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं होकर हस्तकर्म न करें, यह प्रस्तुत सूत्र का विषय है। यही पडिसेवमाणे, राईभोयणं भुंजमाणे॥ सूत्र का आदिपद सूचित करता है। (सूत्र १) तथापि हस्तकर्म को न छोड़ने पर कदाचित् तिर्यञ्चों से भी मैथुन की प्रतिसेवना हो सकती है। वहां गिरियज्ञ आदि में ४८७७.सुत्ते सुत्तं बज्झति, अंतिमपुप्फे व बज्झती तंतू। रात्रीभक्त का वह सेवन कर सकता है तथा अरुणोदयवेला में _ इय सुत्तातो सुत्तं, गहंति अत्थातो सुत्तं वा॥ दूध आदि भी ग्रहण कर सकता है। सूत्र (तन्तु) के साथ सूत्र बांधा जाता है। अंतिम पुष्प में ४८८२.एक्कस्स ऊ अभावे, कतो तिगं तेण एक्कगस्सेव। पहले तन्तु से दूसरा तन्तु बांधा जाता है। इस प्रकार सूत्र से णिक्खेवं काऊणं, णिप्फत्ती होइ तिण्हं तु॥ सूत्र ग्रथित होता है। अथवा अर्थ से दूसरा सूत्र ग्रथित होता एक के अभाव में तीन कहां से होगा। इसलिए 'एक' का है। 'वा' शब्द के द्वारा अर्थ से अर्थ का संबंध भी होता है। ही निक्षेप करने के पश्चात् तीन की निष्पत्ति होती है। ४८७८.घोसो त्ति गोउलं ति य, एगटुं तत्थ संवसं कोई। ४८८३.नामं ठवणा दविए, मातुगपद संगहेक्कए चेव। खीरादिविंघियतणू, मा कम्मं कुञ्ज आरंभो॥ पज्जव भावे य तहा, सत्तेएक्केवगा होति। घोष और गोकुल-ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। वहां रहने ये सात एक-एक होते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, वाला कोई मुनि अपने शरीर को दूध आदि के सेवन से मातृकापद, संग्रह, पर्यव और भाव। हृष्ट पुष्ट कर लेता है। वहां रहता हुआ वह हस्तकर्म आदि ४८८४.दव्वे तिविहं मादकपदम्मि उप्पण्ण-भूय-विगतादी। न करे, मैथुन का सेवन न करे, इसलिए प्रस्तुत सूत्र का सालि त्ति व गामो त्ति व, संघो त्ति व संगहेक्कं तु॥ प्रारंभ है। द्रव्य एकक तीन प्रकार का होता है-सचित्त, अचित्त और ४८७९.हेट्ठाऽणंतरसुत्ते, वुत्तमणुग्याइयं तु पच्छित्तं। मिश्र। मातृकापद एकक भी तीन प्रकार का है-उत्पन्न, भूत तेण व सह संबंधो, एसो संदट्ठओ णामं॥ और विगत संग्रह एकक बहुत्व होने पर भी एक वचन से तीसरे उद्देशक के अंतिम सूत्र के पश्चात्वर्ती सूत्र 'रोधक अभिहित होता है जैसे शालि, ग्राम, संघ आदि। सूत्र' में भिक्षाचर्या के लिए गया हुआ मुनि रात्री में वहीं रह ४८८५.दुविकप्पं पज्जाए, आदि8 जण्ण-देवदत्तो त्ति। जाता है तो उसको साक्षात् अनुद्घातिक प्रायश्चित्त प्राप्त अणादि8 एक्को त्ति य, पसत्थमियरं च भावम्मि। होता है यह कहा है, यहां (प्रस्तुत सूत्र में) भी यही कहा है, पर्याय एकक दो प्रकार का होता है-आदिष्ट-यज्ञदत्त, इसलिए उसके साथ (रोधक सूत्र के साथ) इसका। देवदत्त आदि, अनादिष्ट-कोई एक मनुष्य। भाव एकक के दो 'संदष्टक'२ नामक संबंध है। प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त। ४८८०.उवचियमंसा वतियानिवासिणो मा करेज्ज करकम्म। ४८८६.नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य गणण भावे य। इति सुत्ते आरंभो, आइल्लपदं च सूएइ॥ एसो उ खलु तिगस्सा, निक्खेवो होइ सत्तविहो। १. इसी प्रकार जिस अंतिम सूत्र से उद्देशक पूरा होता है, उस सूत्र से अगले उद्देशक का पहला सूत्र यदि सदृशविषयवस्तु वाला हो तो सूत्र से सूत्र बांधा जाता है। कहीं-कहीं अर्थ के आधार पर भी अपर सूत्र का संबंध होता है। (वृ. पृ. १३०७) २. 'सन्दष्टको' नाम सदृशपूर्वापरसूत्रद्वयसन्दंशकगृहीत इव संबंधो भवति। (वृ. पृ. १३०८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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