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बृहत्कल्पभाष्यम्
१३१. मुरुण्ड राजा पाटलीपुत्र नगर में राजा मुरुंड का शासन था। एक दिन राजा नौका में बैठकर गंगा नदी का आनन्द ले रहा था। अचानक उसकी दृष्टि साधुओं पर टिकी। उसने नाविक को उस ओर जाने का निर्देश दिया। कुछ ही देर बाद राजा साधुओं के निकट पहुंच गया। साधुओं को दूसरे तट पर जाना था। राजा ने साधुओं से कहा-आप नौका में बैठे और जब तक तट न आए तब तक आप कथा कहें। साधुओं ने कथा प्रारंभ की। कथा में आनन्द आने लगा। नाविक नौका को धीरे-धीरे खेने लगा। थोड़ी देर बाद अन्यतट पर पहुंच गए। राजा अन्तःपुर में चला गया। साधु अपने उपाश्रय में पहुंच गया। राजा कथा सुनकर बहुत प्रभावित हुआ। उसने रानियों के सामने साधु की प्रशंसा की। उनके मन में कथा सुनने का आकर्षण पैदा कर दिया। साधु नौका विहार का प्रायश्चित्त कर शुद्ध होकर साधना में लीन हो गए। रानियों का मन कथा सुनने के लिए आकुल-व्याकुल होने लगा। वे बार-बार राजा को कहती। राजा ने साधु की खोज करवाकर अन्तःपुर में कथा सुनाने का निवेदन किया। वह प्रतिदिन अन्तःपुर में कथा वाचन करने लगा। वह साधु कथावाचन के कारण सूत्र और अर्थ का परिमंथु बन गया।
गा. ५६२५ वृ. पृ. १४८८
१३२. चार पत्नियां एक व्यक्ति के चार पत्नियां थी। एक दिन चारों पत्नियों ने कोई अपराध कर लिया। उसने चारों को घर से निकलने का आदेश दिया। पहली पत्नी अन्य के घर चली गई। दूसरी पत्नी पीहर चली गई। तीसरी पत्नी उसके मित्र के घर चली गई और चौथी पत्नी घर से बाहर नहीं गई, वह बोली-मारो-पीटो, कुछ भी करो मैं घर छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। चौथी पत्नी के व्यवहार से प्रसन्न उसने उसको घर की स्वामिनी बना दिया। तीसरी पत्नी जो मित्र के घर गई, उसे रोष रहित तिरस्कार किया और घर ले आया। दूसरी पत्नी जो पीहर गई, उसे पिता के बल पर गर्व था। उससे रुष्ट हो गया। उसके पारिवारिक लोगों के कहने पर उसने उसका सरोषपूर्वक तिरस्कार किया, दंडित किया फिर घर लाया। पहली पत्नी जो पर घर गई थी उसकी उसने चिंता नहीं की।
परस्थानीय-अवसन्न साधु, कुलस्थानीय-अन्य संभोजिक, मित्र घर-समान संभोजिक और स्वघर के समान-सगच्छ साधु होते हैं।
गा. ५७६१ वृ. पृ. १५१८
१३३. कुमार दृष्टान्त एक राजा के तीन पुत्रों ने परस्पर मिलकर मंत्रणा की हम पिता को मारकर राज्य को तीन भागों में बांट लेते हैं। यह बात राजा को ज्ञात हुई। उसने अपने बड़े पुत्र को बुलाया और क्रोधित होते हुए कहा-तुम मेरे बड़े पुत्र हो, युवराज हो, प्रमाणभूत (प्रधान) हो। फिर तुमने ऐसा अकार्य करने की योजना कैसे की और राजा ने उस ज्येष्ठ पुत्र का भोगहरण किया, बंधन, ताड़न, तिरस्कार आदि सब प्रकारों से प्रताड़ित और दण्डित किया।
मध्यमपुत्र भ्रमित किया हुआ है, अप्रधान है-यह सोचकर राजा ने उसका भोगहरण नहीं किया, केवल बंधन, ताड़न-खिंसना आदि उपायों को काम में लिया। कनिष्ठ पुत्र अव्यक्त है, ठगा गया है, यह सोचकर केवल उसके कान पर एक चपेटा दिया और खिंसना की।
लोक-लोकोत्तर में सर्वत्र वस्तु सदृश दंड दिया जाता है। प्रधान प्रमाण पुरुष के अपराध करने पर अनेक दोष उत्पन्न होते हैं।
गा. ५७८० वृ. पृ. १५२२
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