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________________ कथा परिशिष्ट =७२७ आकृष्ट हो गए। दोनों की परस्पर स्वीकृति हुई और विवाह हो गया। सुकुमारिका उसके साथ रहने लगी। एक दिन शशक-मशक दोनों घूमते-घूमते उसके घर पहुंचे। उसने भाई साधु को पहचान लिया। वह उनके चरणों में गिर पड़ी। पुनः दीक्षा ग्रहण कर अपनी आत्मा का कल्याण किया। गा. ५२५५-५२५९ वृ. पृ. १३९७ १२९. भगिनी युगल एक नगर में एक संपन्न कुल से दो सगी बहिनों ने प्रव्रज्या ग्रहण की। कालान्तर में पूरा कुल प्रक्षीण हो गया। केवल उनका भाई जीवित बचा। दोनों आर्यिकाओं ने अपने भाई का दर्शन देने तथा उसे संसार से विरक्त करने के लिए अपने गांव आई। भाई को संसार की असारता समझा प्रव्रजित करने के लिए गुरु के समक्ष लाई। प्रवजित होकर भाई संयम साधना में लग गया। किशोर वय से योवनावस्था में प्रवेश होते ही उसका रूप आकर्षक हो गया। वह जहां भी जाता गांव की तरुण युवतियां उसके रूपाकर्षण में बंध जाती। उपाश्रय में भी काल विकाल में युवतियां आती रहती। इससे साधुओं की चर्या में विघ्न पड़ने लगा। साधुओं ने गुरु से निवेदन किया। गुरु ने मुनि को भगिनीद्वय के पास संरक्षण के लिए भेज दिया। दोनों साध्वियां तरुणियों को समझाती किन्तु वे उसका मोह छोड़ने के लिए तैयार नहीं होती। अपने कारण दोनों बहिनों को कष्ट उठाते देख मुनि ने भक्त प्रत्याख्यान कर लिया। मारणान्तिक समुद्घात हुआ। साध्वियों ने देखा कि भाई का स्वर्गवास हो गया है। दोनों ने उसे उठाया और जंगल में छोड़ आई। स्त्री स्पर्श से उस मुनि के मन में विकार उत्पन्न हो गया। जंगल की शीतल वायु से वह पूर्ण चैतन्य हुआ। इधर-उधर घूमने लगा। श्रेष्ठी पुत्री ने उसे देखा। दोनों का मन मिला और वह वहीं रहने लगा। कालान्तर में साध्वियों ने भाई को देखा और उसे पहचान लिया। सारी स्थिति स्पष्ट कर पुनः धर्मकथा की। भाई पुनः प्रतिबुद्ध हुआ। आत्म साधना कर अपनी आत्मा का कल्याण किया। गा. ५२६१-५२६२ वृ. पृ. १३९९ १३०. जागरूक गृहस्वामिनी एक वणिक् बहुत कृपण था। उसे अपनी पत्नी पर भी विश्वास नहीं था। इसलिए भोजन के लिए जितनी जरूरत होती उतना ही चावल, घी, लवण आदि खाद्य सामग्री देता। पत्नी बहुत समझदार थी उसने सोचा-पति तो इतनी अल्पमात्रा में खाद्य-सामग्री लाकर देता है। यदि विकाल में कोई स्वजन या मित्र घर पर आ जायेगा तो मैं उनको क्या खिलाऊंगी? ऐसा सोचकर वह उस सामग्री में से ही थोड़ा-थोड़ा बचा कर रख लेती। बहुत समय व्यतीत हो गया। उसके पास काफी खाद्य-सामग्री एकत्रित हो गई। एक बार रात्री में पति का मित्र आ गया। वणिक् को चिंता सताने लगी। आरक्षकों के भय से दुकान पर भी जाना संभव नहीं है-घर पर भी कुछ नहीं होगा। मित्र को भोजन कैसे कराऊंगा? पत्नी ने पति के भावों को जान लिया। वह बोली आप चिन्ता न करे। सारी व्यवस्था हो जायेगी। मित्र ने स्नान किया तब तक खाना तैयार हो गया। अच्छी तरह भोजन किया फिर सो गया। प्रातः जल्दी नाश्ता कर उसने अपने नगर की ओर प्रस्थान कर दिया। मित्र के जाने के बाद उसने पत्नी से पूछा-मैं तुम्हें परिमित अन्न आदि देता हूं फिर भी तुमने मेरे मित्र का अच्छा आतिथ्य कैसे कर दिया? उसने सारी बात बता दी। पति बहुत खुश हुआ। घर की सारी जिम्मेदारी पत्नी को सौंप दी। गा. ५२९३ वृ. पृ. १४०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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