SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२१ पांचवां उद्देशक ५९५१.पालीहिं जत्थ दीसइ, गोनिषधिका, हस्तिशंडिका, पर्यंका, अर्धपर्यंका। वीरासन जत्थ य सइरं विसंति न जुवाणा। अर्थात् सिंहासन पर बैठा हुआ व्यक्ति भूमि पर दोनों पैर उग्गहमादिसु सज्जा, टिकाए हुए है, उसके पीछे से सिंहासन निकाल देने पर आयावयते तहिं अज्जा॥ सिंहासन पर बैठे हुए कि भांति मुक्तजानुक होकर निरालंब आर्या को ऐसे स्थान में आतापना लेनी चाहिए जहां से में बैठना। यह दुष्कर होता है इसलिए इसको वीरासनिक वह प्रतिश्रय की पालिका संयतिओं द्वारा देखी जा सके। जहां कहते हैं। दंडासन, लगंडासन-दंडासनिका, लगंडशायिकास्वच्छंद रूप से युवा व्यक्ति आ-जा न सके, वहां अवग्रह, इन पदद्वय में क्रमशः आयत और कुजता-दोनों से उपमा अनन्तक तथा संघाटिक आदि से उपकरणों आयुक्त होकर करनी चाहिए। जैसे-दंड की भांति आयत अर्थात् पैरों के आर्यिका बाहृयुगल को प्रलंबित कर आतापना ले। प्रसारण से लंबा जो आसन है वह हैं दंडासन। लगंड का ५९५२.मुच्छाए निवडिताए, वातेण समुद्भुते व संवरणे। अर्थ है-दुःसंस्थित काष्ठ। उसकी भांति कुब्जता से, गोतरमजयणदोसा, जे वुत्ता ते उ पाविज्जा॥ मस्तिष्क और कोहनी को भूमी पर लगाकर, पीठ को ऊपर आतापना लेती हुई वह आर्या मूर्छावश नीचे गिर जाए, उठाकर सोना, यह लगंडशायी है। ये सारे अभिग्रह विशेष वायु से प्रावरण इधर-उधर हो जाए, तो अवग्रह और आर्याओं के लिए निषिद्ध हैं। अनन्तक के बिना गोचरचर्या में अयतना से प्रविष्ट आर्या के ५९५५.जोणीखुब्भण पेल्लण, गुरुगा भुत्ताण होइ सइकरणं। जो दोष बताए गए हैं वे दोष होते हैं, उसे प्राप्त होते हैं। गुरुगा सवेंटगम्मी, कारणे गहणं व धरणं वा॥ ऊर्ध्वस्थान के स्थानविशेष में स्थित आर्यिका के योनिनो कप्पइ निग्गंथीए ठाणाययाए क्षोभ हो सकता है। तरुण इस प्रकार से स्थित साध्वी को होत्तए॥ देखकर उसे प्रतिसेवना के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए प्रस्तुत सूत्रगत अभिग्रहों को लेने वाली आर्यिका के चतुर्गुरु। (सूत्र २१) भुक्तभोगिनी आर्या के स्मृतिकरण का हेतु होता है तो नो कप्पइ निग्गंथीए पडिमट्ठाइयाए अन्यान्य श्रमणियों के कौतुक का विषय बनता है। आर्या यदि होत्तए॥ सवेंटक तुम्बक ग्रहण करती है तो चतुर्गुरु। कारण में उसका (सूत्र २२) ग्रहण और धारण अनुज्ञात है। ५९५६.वीरासण गोदोही, मुत्तं सव्वे वि ताण कप्पंति। नो कप्पइ निग्गंथीए नेसज्जियाए, ते पुण पडुच्च चेटुं, सुत्ता उ अभिग्गहं पप्पा॥ उक्कुडुगासणियाए वीरासणियाए, अनन्तरोक्त आसनों में वीरासन और गोदोहिकासन को छोड़कर शेष ऊर्ध्वस्थान आदि सभी आसन आर्यिकाओं को दंडासणियाए, लगंडसाइयाए, कल्पता है। वे सूत्र में प्रतिषिद्ध हैं तो फिर अनुज्ञात कैसे हैं ? ओमंथियाए, उत्ताणियाए, अंबखुज्जियाए, आचार्य कहते हैं-शेष सारे स्थान चेष्टारूप में कल्पते हैं, एकपासियाए-होत्तए॥ अभिग्रहरूप में नहीं। सूत्र अभिग्रहरूप में प्रवृत्त है, इसलिए (सूत्र २३) यह कहा जाता है कि आर्यिकाओं को आभिग्रहरूप ऊर्ध्वस्थान आदि नहीं कल्पता, सामान्यतः आवश्यक आदि ५९५३.उद्धट्ठाणं ठाणायतं तु पडिमाउ होति मासाई। के समय जो किए जाते हैं वे कल्पते हैं। पंचेव णिसिज्जओ, तासि विभासा उ कायव्वा॥ ५९५७.तवो सो उ अणुण्णाओ, जेण सेसं न लुप्पति। ५९५४.वीरासणं तु सीहासणे व जह मुक्कजण्णुक णिविट्ठो। अकामियं पि पेल्लिज्जा, वारिओ तेणऽभिग्गहो।। दंडे लगंड उवमा, आयत खुज्जाय दुण्हं पि॥ शिष्य ने पूछा-भगवान् ने अभिग्रहरूप तप कर्म निर्जरा के स्थानायत अर्थात् ऊर्ध्वस्थान, प्रतिमास्थायी-मासिकी लिए कहा है। उसका प्रतिषेध क्यों? आचार्य ने कहाआदि प्रतिमा में स्थित, पांच प्रकार की निषद्याएं। निषद्या भगवान् ने तप वही अनुज्ञात किया है जिससे शेष व्रतों का का अर्थ है-उपवेशन की विधि। उनकी विभाषा करनी विनाश न हो। दंडायत आदि स्थान स्थित आर्यिका को चाहिए। वह इस प्रकार है-निषद्याएं पांच हैं-समपादपुता, देखकर, उसकी इच्छा न होते हुए भी कोई उसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy