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________________ ६८६ = बृहत्कल्पभाष्यम् ८. श्रावक भार्या एक श्रावक किसी स्त्री के रूप में आसक्त हो गया। पत्नी ने पूछा-आप उदास क्यों है? उसने सारी बात कह दी। वह बोली-आप चिन्ता न करें संध्या के समय उसे ले आऊंगी। पति आश्वस्त हो गया। वह उस स्त्री के घर गई। उसके कपड़े और आभूषण ले आई। सायं उसने स्वयं उन वस्त्रों को धारण किया। आभूषण पहनें। अब वह उस स्त्री की भांति दिखाई देने लगी। अंधकार हो गया। उसने उसके साथ भोग भोगा। दूसरे दिन उसे पश्चात्ताप हुआ। उसने अपनी पत्नी से कहा-'मेरा व्रत खंडित हो गया।' वह बोली-नहीं, आपका व्रत खंडित नहीं हुआ। वह स्त्री मैं ही थी दूसरी नहीं। उसने विश्वास दिलाया। गा. १७२ वृ. पृ. ५४ ९. साप्तपदिक किसी सीमान्त गांव में एक व्यक्ति था, जो किसी साधु और ब्राह्मण को न सुनता और न उनकी सेवा करता और न उनको आवास स्थान ही देता था। वह मानता था कि उनको सम्मान देने से वे मेरे घर आयेंगे, मुझे धर्म की बात कहेंगे। उनकी बात सुनकर मैं श्रद्धालु न हो जाऊं, अतः अच्छा है मैं उनसे दूर ही रहूं। एक बार उस गांव में साधु आ गए। उन्होंने रहने के लिए स्थान मांगा। उस के मित्रों ने सोचा कि वह स्थान नहीं देता। वह भी इन साधुओं से छला जाए, ऐसा सोचकर उन्होंने साधुओं को उसका घर बताते हुए कहा-'वह आपको स्थान अवश्य देगा क्योंकि वह तुम्हारा भक्त श्रावक है।' साधु वहां गए। उन्होंने स्थान के लिए पूछा। परन्तु उसने साधुओं को कोई आदर नहीं दिया। तब एक साधु ने कहा-'हम कहीं दूसरे के घर तो नहीं आ गए। हमें तो कहा या था कि वह श्रावक ऐसा है, वैसा है। हम तो ठगे गए।' यह सुनकर उस व्यक्ति ने सारी बात पूछी। उत्तर देते हुए मुनि ने कहा-'अभी एक व्यक्ति ने आपके विषय में बहुत कुछ बताया था। इसलिए हम यहां आए हैं।' यह सुनकर उसने सोचा-'अकार्य हो गया। मैं भले ही ठगा जाऊं, पर साधुओं की कैसी प्रवंचना ?' उसने मुनियों से कहा-'मैं आपको स्थान दे सकता हूं, परन्तु आपको एक व्यवस्था रखनी होगी कि आप मुझे कभी धर्म का उपदेश नहीं देंगे।' साधुओं ने कहा-ठीक है। उसने रहने के लिए साधुओं को स्थान दे दिया। चातुर्मास प्रारंभ हुआ। वर्षावास संपन्न होने पर उस व्यक्ति ने धर्म पूछा। मुनियों ने धर्मवार्ता सुनाई। वह परित्याग करने में समर्थ नहीं हुआ। न वह मूलगुण-उत्तरगुण विषयक व्रत लेना चाहता था न मद्य-मांस और मधु की विरति ही करना चाहता था। तब मुनि बोले-'तुम साप्तपदिक व्रत ग्रहण करो अर्थात् जिसको तुम मारना चाहो, उसे मारने से पूर्व सात कदम पीछे हटने में जितना समय लगे उतने समय की प्रतीक्षा करना। यह व्रत उसने स्वीकार कर लिया। साधुओं ने जान लिया कि यह एक न एक दिन संबुद्ध होगा। साधु वहां से अन्यत्र चले गए। एक बार वह चोरी करने घर से निकला। मार्ग में अपशकुन हो जाने के कारण वह वापस घर की ओर लौटा। चलते-चलते वह रात्रि में घर आया और मंद गति से घर में प्रवेश किया। उस दिन उसकी बहन वहां आई थी। वह पुरुषवेश में भाभी के साथ नृत्य देखने गई थी। देर रात से घर आने के कारण वह उसी वेश में भाभी के साथ सो गई। चोर घर पहुंचा और उसने देखा कि उसकी पत्नी किसी पर-पुरुष के साथ सो रही है। वह क्रोधित हो गया और मारने के लिए तलवार निकाली। इतने में ही गृहीत व्रत की स्मृति हो आई। सात कदम पीछे हटने जितने समय तक प्रतीक्षा की। इतने में ही बहिन की बाहु पर पत्नी का सिर आक्रान्त हुआ। बहिन की नींद उड़ गई। वह बोली-भाभी मेरी भुजा दुःखने लगी है, अतः तुम अपना सिर उठाओ। उसने अपनी बहिन का स्वर पहचान लिया। वह मन ही मन लज्जित हुआ और सोचने लगा कि मैंने पुरुषवेश में इसे पर-पुरुष मान लिया। यदि व्रत नहीं होता तो आज अनर्थ हो जाता। प्रतीक्षा करने के कारण अकरणीय से बच गया। वह संबुद्ध हो गया। उसकी ज्ञान चेतना जाग गई। पुनः मुनि को ढूंढ कर धर्म सुना और फिर उन्हीं के पास प्रवजित हो गया। गा. १७२ वृ. पृ. ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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