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=बृहत्कल्पभाष्यम्
६३३२.तितिणिए पुव्व भणिते, इच्छालोभे य उवहिमतिरेगे। ६३३८.तुरियगिलाणाहरणे, मुहरित्तं कुज्ज वा दुपक्खे वी। लहुओ तिविहं व तहिं, अतिरेगे जे भणिय दोसा।
ओसह विज्जं मंतं, पेल्लिज्जा सिग्घगामि त्ति। तितिणिक के विषय में पूर्व अर्थात् पीठिका में कहा जा ग्लान के लिए शीघ्र औषध लाने के लिए चुका है। इच्छालोभ का अर्थ है-लोभवश उपधि को द्विपक्ष-संयतपक्ष और संयतीपक्ष में मौखर्य कर सकता अतिरिक्त ग्रहण करना। उसको लघुमास का प्रायश्चित्त है। है। यह मुनि शीघ्रगामी है-औषधि लाने के लिए, विद्या अथवा उसमें तीन प्रकार का प्रायश्चित्त है-जघन्य- तथा मंत्र का प्रयोग करने के लिए, अतः इसे प्रेरित करें, पंचक, मध्यम-मासलघु और उत्कृष्ट-चतुर्लघु। अतिरिक्त व्याप्त करें। उपधि के विषय में तीसरे उद्देशक में जो दोष कहे हैं, वे ६३३९.अच्चाउरकज्जे वा, तुरियं व न वा वि इरियमुवओगो। होते हैं।
विज्जस्स वा वि कहणं, भए व विस सूल ओमज्जे॥ ६३३३.अनियाणं निव्वाणं, काऊणमुवट्टितो भवे लाओ। आगाढ़ ग्लान के प्रयोजन से यह त्वरित जाता है, ईर्या
पावति धुवमायातिं, तम्हा अणियाणया सेया॥ में उपयोग नहीं देता, वैद्य को धर्मकथा कहता हुआ जाता निर्वाण अनिदान साध्य है। जो निदान करके पुनः न करने है, भय में मंत्रजाप करता हुआ, विषभक्षण का मंत्र से के लिए उपस्थित होता है उसको लघुमास का प्रायश्चित्त उपचार करता हुआ, नई सीखी हुई विषविद्या का परावर्तन आता है। जो निदान करता है वह निश्चित ही पुनः भव करता हुआ, किसी साधु के शूल का अपमार्जन करता हुआ करता है। इसलिए अनिदानता, श्रेयस्करी है।
जाता है। ६३३४.इह-परलोगनिमित्तं, अवि तित्थकरत्तचरिमदेहत्तं। ६३४०.तितिणिया वि तदट्ठा, अलब्भमाणे वि दव्वतितिणिता। सव्वत्थेसु भगवता, अणिदाणत्तं पसत्थं तु॥
वेज्जे गिलाणगादिसु, आहारुवधी य अतिरित्तो॥ इहलोक के निमित्त, परलोक के निमित्त, तीर्थंकरत्व या ग्लान और आचार्य के प्रयोजन से तिन्तिणिकता भी की चरमदेहत्व के लिए भी निदान करना वर्ण्य है। समस्त विषयों जाती है। ग्लानप्रायोग्य औषधादि न मिलने पर के प्रति अनिदानता को भगवान् ने प्रशस्त माना है।
द्रव्यतिन्तिणिकता (हाय! यहां ग्लान प्रायोग्य कुछ नहीं ६३३५.बिइयपदं गेलण्णे, अद्धाणे चेव तह य ओमम्मि। मिलता) करनी चाहिए। इच्छालोभ में यह अपवादपद है
मोत्तूणं चरिमपदं, णायव्वं जं जहिं कमति॥ ___ वैद्य को दान देने के लिए या ग्लान के लिए आहार और छहों प्रकार के परिमंथुओं में द्वितीयपद यह है-ग्लानत्व, उपधि अधिक भी ग्रहण किया जा सकता है। अध्वा तथा अवम-दुर्भिक्ष। चरमपद-निदान-करणरूप में ६३४१.अवयक्खंतो व भया, कोई अपवाद नहीं होता। कौत्कचिका आदि में जो अपवाद
कहेति वा सत्थिया-ऽऽतिअत्तीणं। जहां अवतरित होता है, वहां उसको जानना चाहिए।
विज्जं आइसुतं वा, ६३३६.कडिवेयणमवतंसे, गुदपागऽरिसा भगंदलं वा वि।
खेद भदा वा अणाभोगा॥ गुदखील सक्करा वा, ण तरति बद्धासणो होउं॥ मार्ग में ईर्या का शोधन न कर भय से इधर-उधर देखता किसी के कटिवेदना होती है, किसी के अवतंस-पुरुष- हुआ भी गमन कर सकता है। मार्ग में सार्थिकों को तथा व्याधि नामक रोग, गुदा में अर्श, भगंदर होता है, किसी के सार्थचिन्तकों को धर्मकथा कह सकता है। विद्या का परावर्तन गुदाकीलक होता है। कोई शर्करा से पीड़ित होता है-ये करता हुआ, आदिश्रुत-पंचमंगल का स्मरण करता हुआ चल बद्धासन होकर एक स्थान पर नहीं बैठ सकते। ऐसी स्थिति सकता है। खेद या भय से ईर्या में विस्मृतिवश या सहसा में वह कौत्कुचिक भी होता है।
अनुपयुक्त होकर भी चल सकता है। ६३३७.उव्वत्तेति गिलाणं, ओसहकज्जे व पत्थरे छुभति। ६३४२.संजोयणा पलंबातिगाण कप्पादिगो य अतिरेगो। वेवति य खित्तचित्तो, बितियपदं होति दोसुं तु॥
ओमादिए वि विहुरे, जोइज्जा जं जहिं कमति॥ जो ग्लान को उद्वर्तन आदि कराता है, औषधकार्य से मार्ग में आहार आदि की संयोजना भी करता है। प्रलंब उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर संक्रमण करता है, जो आदि के लिए पिप्पलक आदि अतिरिक्त उपधि भी रखी जा क्षिसचित्त होता है, वह पत्थर फेंकता है, कांपता है-ये। सकती है। और्णिक कल्प आदि तथा पात्रादिक भी क्रमशः शरीर कौत्कुचिक और भाषा कौत्कचिक के अपवाद अतिरिक्त रखा जा सकता है। यह सारा अध्वा में पद हैं।
अपवादपद है। अवम आदि में विधुर-आत्यंतिक आपदा में
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