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________________ छठा उद्देशक विराधना होती है, वह संयमविराधना है। आत्मविराधना में वह? रानी ने साधु की ओर इशारा किया। राजा ने सर्प, बिच्छु आदि का उपद्रव हो सकता है। यदि वह स्तंभ पूछा-यह मरा हुआ कैसे? रानी ने कहा-यह संसार से आदि से टकराता है। और वह स्तंभ यदि दुर्बद्ध हो या मूल विरक्त है अतः मृत की भांति मृत है। हो तो गिर कर उसकी पीड़ा का हेतु बनता है। (ख) इसी प्रकार सुप्त मनुष्य भी मृतवत् होता है। बार-बार इधर-उधर घूमने से संधि विसंधि हो सकती है ६३२७.मुहरिस्स गोण्णणाम, आवहति अरिं मुहेण भासंतो। तथा अन्यान्य अनेक दोष हो सकते हैं। ___ लहुगो य होति मासो, आणादि विराहणा दुविहा॥ ६३२३.कर-गोफण-धणु-पादादिएहिं उच्छुभति पत्थरादीए। मौखरिक-यह गुणनिष्पन्न नाम है। वह मुंह से असमंजस भमुगा-दाढिग-थण-पुतविकंपणं णट्टवाइत्तं॥ बोलता हुआ वैर को वहन करता है अर्थात् वैर बांधता है। हाथ से, गोफण से, धनुष्य से, पैर आदि से उसको मासलघु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा बलपूर्वक पत्थर आदि फेंकने वाला शरीर कौत्कुचिक संयम और आत्मविराधना दोनों होती हैं। उसके सत्यव्रत के होता है। भौंहों को, दाढ़ी को, स्तनों को तथा पुतों को परिमंथ के कारण संयमविराधना होती है। कंपित करना नृत्यपातित्व कहलाता है। वह भी शरीर ६३२८.को गच्छेज्जा तुरियं, अमुगो त्ति य लेहएण सिट्ठम्मि। कौत्कुचिक है। सिग्घाऽऽगतो य ठवितो, केणाहं लेहगं हणति॥ ६३२४.छेलिय मुहवाइत्ते, जंपति य तहा जहा परो हसति। राजा ने सभा में पूछा-मेरा एक कार्य है, कौन शीघ्र जा कुणइ य रुए बहुविधे, वग्घाडिय-देसभासाए॥ सकता है? एक लेखक ने कहा-अमुक व्यक्ति पवनवेग से मुंह से सीटी बजाना, मुंह को वादित्र बनाकर जाता है। राजा ने उसी को अपने कार्य के लिए भेजा और बजाना अथवा उस प्रकार बोलना जिससे दूसरे हंस वह कार्य संपन्न कर शीघ्र आ गया। राजा ने उसको 'दूत' पड़े, बहुविध शब्द करना, वग्घाडिक उद्घट्टकारक भाषा के रूप में स्थापित कर दिया। उसने पूछा-मेरा नाम राजा या देशी भाषा बोलना जिससे सभी हंसने लगे। वह के समक्ष किसने लिया? लोगों ने कहा-लेखक ने। अवसर भाषाकौत्कुचिक है। देखकर उसने लेखक को मार डाला। मुनि को मुखरता से ६३२५.मच्छिगमाइपवेसो, असंपुडं चेव सेट्ठिदिलुतो। बचना चाहिए। दंडिय घतणो हासण, तेइच्छिय तत्तफालेणं॥ ६३२९.आलोयणा य कहणा, परियट्टऽणुपेहणा अणाभोए। भाषाकौत्कुचिक की बात सुनकर लोग जोर-जोर से लहुगो य होति मासो, आणादि विराहणा दुविहा।। हंसने लगे। मुंह को फाड़ कर हंसने से अन्दर मक्षिका जो मुनि इधर-उधर देखता हुआ चलता है, धर्मकथा, आदि प्रवेश कर जाती है। कभी-कभी मुंह खुला का खुला परिवर्तना, अनुप्रेक्षा करता हुआ मार्ग में अनुपयुक्त होकर रह जाता है। मुंह संपुट नहीं होता। यहां एक सेठ का चलता है तो लघुमास, आज्ञाभंग आदि दोष तथा दोनों प्रकार दृष्टांत है-एक राजा के पास एक भांड था। एक बार की विराधना होती है। उसने राज्य सभा में ऐसा हास्यकारी वचन कहा जिससे ६३३०.आलोएंतो वच्चति, थूभादीणि व कहेति वा धम्म। सभी हंसने लगे। एक सेठ बहुत जोर से हंसा। उसका परियट्टणाऽणुपेहण, न यावि पंथम्मि उवउत्तो॥ मुंह वैसा का वैसा खुला रह गया। वह संपुट नहीं स्तूप आदि को देखते हुए, धर्मकथा करते हुए, हुआ। स्थानीय वैद्यों ने उपचार किया, पर व्यर्थ। एक ___ परिवर्तना तथा अनुप्रेक्षा करते हुए मार्ग में चलता है प्राघूर्णक चिकित्सक आया। उसने लोहमय फाल को तप्त अथवा मार्ग में अनुपयुक्त होकर गमन करता है, उसे चक्षु का कर उस सेठ के मुंह में डाला। उसके भय से सेठ का मुंह लोलुप कहते हैं। संपुट हो गया। ६३३१.छक्कायाण विराहण, संजमे आयाए कंटगादीया। ६३२६.गोयर साहू हसणं, गवक्खे दटुं निवं भणति देवी। आवडणे भाणभेदो, खद्धे उड्डाह परिहाणी।। हसति मयगो कहं सो, त्ति एस एमेव सुत्तो वी॥ वह संयम में छहकाय की विराधना करता है। कांटा गाथा ६३२० में उल्लिखित दोनों दृष्टान्त आदि लगने से आत्मविराधना होती है। कहीं गिर जाने पर (क) राजा-रानी गवाक्ष में बैठे थे। रानी ने देखा कि एक पात्र टूट जाते हैं। प्रचुर भक्त-पान भूमी पर गिर जाने से साधु गोचरचर्या में घूमता हुआ हंस रहा है। रानी ने राजा उड्डाह होता है। भाजन आदि की गवेषणा में या उनके परिकर्म से कहा-मृत मनुष्य हंस रहा है। राजा ने पूछा-कहां है से सूत्रार्थ की परिहानि होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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