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________________ आयुर्वेद एवं आरोग्य उर्ध्वं वमनं तस्य निरोधे कुष्ठं भवति । 'ग्लान्यं वा' सामान्यतो मान्द्यं 'त्रिष्वपि ' मूत्र - पुरीष-वमनेषु निरुध्यमानेषु भवेत् ॥ (बृभा वृ. पृ. १९८४) मूत्र का निरोध करने पर चक्षु का उपघात होता है, मल का निरोध करने पर जीवन का नाश, वमन-निरोध करने पर कुष्ठ रोग होता है तथा तीनों वेगों का निरोध करने पर सामान्य रूप से रोग का अर्थात् मान्द्य का आविर्भाव होता है। पैदल चलने के लाभ वायाई सद्वाणं, वयंति कुविया उ सन्निरोहेणं । लाघवमग्गिपडुत्तं, परिस्समजतो उ चंकमतो ॥ (बृभा - ४४५६) अनुयोगदानादिनिमित्तं यश्चिरमेकस्थानोपवेशनलक्षणः सन्निरोधेस्तेन 'कुपिताः' स्वस्थानात् चलिता ये वातादयो धातवस्ते चंक्रमतो भूयः स्वस्थानं व्रजन्ति । 'लाघवं' शरीरे लघुभाव उपजायते । 'अग्निपटुत्वं' जाठरानलपाटवं च भवति । यश्च व्याख्यानादिजनितः परिश्रमस्तस्य जयः कृतो भवति । एते चक्रमतो गुणा भवन्ति । (बृभा वृ. पृ. १२०३ ) चंक्रमण के चार लाभ हैं• लम्बे समय तक बैठने से जो वायु आदि धातु प्रकुपित हो जाती है, वह चंक्रमण से पुनः अपने स्थान पर स्थित हो जाती है। शरीर में लाघव का अनुभव होता है। • · जाठराग्नि प्रदीप्त होती है। • परिश्रम से होने वाली थकान दूर होती है। दोसोदए य समणं, ण होइ न निदाणतुल्लं वा ॥ (बृभा-५२०२) रोगाणामुदये.... औषधं न दीयते, यतश्च निदानादुत्थितो व्याधिः तत्तुल्यं - तत्सदृशमपि वस्तु रोगवृद्धिभयान्न दीयते; यद्वा दोषोदये दीयमानं शमनं न ननिदानतुल्यं भवति, किन्तु भवत्येव, ततो न दातव्यम् । (बृभा वृ पृ. १३८३) रोग का उदय होने पर वह वस्तु औषध के रूप में नहीं दी जाती, जिस वस्तु के कारण रोग उत्पन्न होता है। उसके सदृश वस्तु को भी रोग वृद्धि के भय से नहीं दिया जाता। अथवा दोष का उदय होने पर वह रोग का निदान करने वाली होती है। Jain Education International उन्माद की चिकित्सा उम्मातो अहव पित्तमुच्छाए । पित्तम्मि य सक्करादीणि ॥ ७४५ (बृभा- ६२६४) 'पित्तमूर्च्छया' पित्तोद्रेकेण उपलक्षणत्वाद् वातोद्रेकवशतो वा स्यादुन्मादः या तु वातेनोन्मादं प्राप्ता सा निवाते स्थापनीया । उपलक्षणमिदम्, तेन तैलादिना शरीरस्याभ्यङ्गो घृतपायनं च तस्याः क्रियते। ‘पित्ते' पित्तवशादुन्मत्तीभूतायाः शर्करा-क्षीरादीनि दातव्यानि । (बृभा वृ. पृ. १६५३) पित्तप्रकोप अथवा वायुप्रकोप से उन्माद होता है। वात से उन्मत्त होने वाली आर्या को वायु रहित स्थान पर रखना चाहिए तथा उसके शरीर का अभ्यङ्गन एवं उसे घृतपान कराना चाहिए। पित्त के कारण उन्मत्त होने पर दूध में शर्करा मिलाकर पिलाना चाहिए। विसस्स विसमेवेह, ओसहं अग्गिमग्गिणो । (बृभा-६२७३) विष की औषध विष तथा अग्नि की औषध अग्नि है। वेग - विसर्जन में दिशा का महत्त्व उभे मूत्र - पुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ्मुखः । रात्रौ दक्षिणतश्चैव तथा चाऽऽयुर्न हीयते ॥ (बृभा वृ. पृ. १३२) दिन में उच्चार और प्रस्रवण उत्तरदिशा की ओर मुख करके करना चाहिए तथा रात्रि में दक्षिण दिशा में मुंह करके करना चाहिए जिससे आयु क्षीण न हो। पथ्य का महत्त्व भेषजेन विना व्याधिः, पथ्यादेव न तु पथ्यविहीनस्य, भेषजानां निवर्त्तते । शतैरपि ॥ (बृभा वृ. पृ. ५७५) भेषज के बिना भी पथ्य के द्वारा रोग की निवृत्ति हो सकती है लेकिन पथ्य के बिना सैकड़ों भेषज से भी रोग निवृत्ति नहीं होती । दंत, आंख आदि के सामान्य प्रयोग For Private & Personal Use Only दन्तानामञ्जनं श्रेष्ठं, कर्णानां दन्तधावनम् । शिरोऽभ्यङ्गश्च पादानां, पादाभ्यङ्गश्च चक्षुषोः ॥ (बृभा वृ. पृ. १०६३) www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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