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=बृहत्कल्पभाष्यम् ५२४७.दोन्नि वि अनालबद्धा उ, जुज्जंती एत्थ कारणे। ५२५३.एवं पि कीरमाणे, सातिज्जणे चउगुरू ततो पुच्छा।
किढी कण्णा विमज्झा वा, एमेव पुरिसेसु वि॥ तम्मि अवत्थाय भवे, तहिगं च भवे उदाहरणं ।। नालबद्ध के अभाव में दोनों-स्त्री पुरुष जो अनालबद्ध हों इस प्रकार यतना दिए जाने पर भी यदि वह निर्ग्रन्थी वे उस संयती के कार्य करते हैं। उनमें भी प्राथमिकता है- पुरुष स्पर्श का आस्वादन करती है तो उसे चतुर्गरु का स्थविरा को, उसके अभाव में कन्यका, उसके अभाव में । प्रायश्चित्त आता है। अनन्तर शिष्य पूछता है-उस ग्लान मध्यमा। इसी प्रकार पुरुषों में भी।
अवस्था में भी मैथुनाभिलाषा होती है, इस पर श्रद्धा नहीं ५२४८.असईय माउवग्गे, पिता व भाता व से करेज्जाहि। होती। इस अवस्था का यह उदाहरण है।
दोण्ह वि तेसिं करणं, जति पंथे तेण जतणाए॥ ५२५४.कुलवंसम्मि पहीणे, सस-भसएहिं च होइ आहरणं। मातृवर्ग अर्थात् स्त्रियों के अभाव में उस संयती के पिता, सुकुमालियपव्वज्जा, सपच्चवाता य फासेणं॥ भ्राता उसको उठाना आदि कार्य करते हैं। दोनों को यह यहां शशक-मशक का उदाहरण है। सारा कुल-वंश नष्ट करणीय होता है। यदि मार्ग में वह संयती ग्लान हो जाती है हो जाने पर सुकुमारिका को उन दोनों ने प्रव्रज्या दी। वह तो यतनापूर्वक (गोपालकंचुकतिरोधानरूप से?) उसका । अत्यन्त रूपवती और सुकुमार स्पर्शवाली थी। ये दोनों रूप परिकर्म किया जाता है।
और स्पर्श आपत्तिजनक हो गए। ५२४९.थी पुरिस णालऽणाले,
५२५५.जियसत्तुनरवरिंदस्स अंगया सस-भसा य सुकुमाली। सपक्ख परपक्ख सोयऽसोये य। धम्मे जिणपण्णत्ते, कुमारगा चेव पव्वइता॥ आगाढम्मि उ कज्जे,
५२५६.तरुणाइन्ने निच्चं, उवस्सए सेसिगाण रक्खट्ठा। करेति सव्वेहि जतणाए॥
गणिणि गुरु-भाउकहणं, पिहुवसए हिंडए एक्को। आगाद कार्य (आत्यन्तिक ग्लानत्व में) स्त्री या पुरुष, ५२५७.इक्खागा दसभागं, सव्वे वि य वण्हिणो उ छब्भागं। नालबद्ध या अनालबद्ध, स्वपक्ष अथवा परपक्ष, शौचवादी या
अम्हं पुण आयरिया, अद्धं अद्रेण विभयंति॥ अशौचवादी-ये सभी यतनापूर्वक उसका परिकर्म करते हैं। ५२५८.हत-महित-विप्परद्धे, वण्हिकुमारेहिं तुरुमिणीनगरे। ५२५०.पंथम्मि अपंथम्मि व,
किं काहिति हिंडतो, पच्छा ससतो व भसतो वा॥ अण्णस्सऽसती सती वऽकुणमाणो। ५२५९.भायऽणुकंप परिण्णा, समोहयं एगो भंडगं बितितो। अंतरियकंचुकादी,
आसत्थ वणिय गहणं, भाउग सारिक्ख दिक्खा य॥ सच्चिय जतणा तु पुव्वुत्ता॥ वाराणसी नगरी का राजा जितशत्रु था। उसकी पुत्री मार्ग में या अमार्ग में दूसरे के अभाव में या कहने पर भी सुकुमालिका नाम की राजकुमारी थी। उसके शशक और जो करना नहीं चाहता तो स्वयं गोपालकंचुक आदि से मशक-ये दो भाई थे। कालान्तर में दोनों भाई जिनप्रज्ञप्त धर्म अंतरित होकर करता है। यहां पूर्वोक्त यतना (गाया ३७६८) में प्रव्रजित हो गए। उन्होंने अपनी बहिन को भी प्रव्रजित कर के अनुसार जान लेनी चाहिए।
दिया। वे तुरमिणी नगरी में गए और उन्होंने साध्वी ५२५१.गच्छम्मि पिता पुत्ता, भाता वा अज्जगो व णत्तू वा। सुकुमालिका को महत्तरिका को सौंप दी। वह अत्यंत रूपवती
एतेसिं असतीए, तिविहा वि करेंति जयणाए॥ थी। वह जब भी भिक्षाचर्या के लिए या विचारभूमी में जाती गच्छ में यदि पिता, पुत्र, भ्राता, आर्यक-दादा, नाना, तब-तब तरुण उसके पीछे-पीछे जाते। जब वह वसति में पौत्र, हों तो ये उस संयती का परिकर्म करें। इनके अभाव में प्रवेश कर जाती तब भी युवक वसति में जाकर बैठ जाते। तीनों-स्थविर, मध्यम और तरुण मुनि यतनापूर्वक उसका निर्ग्रन्थीयां प्रत्युपेक्षण आदि नहीं कर पाती थी। महत्तरिका ने परिकर्म करे।
गुरु से कहा। गुरु ने दोनों भाई मुनियों से कहा-तुम ५२५२.दोण्णि वि वयंति पंथं, एक्कतरा दोण्णि वा न वच्चंती। सुकुमालिका का संरक्षण करो। वे उसे पृथक् उपाश्रय में ले
तत्थ वि स एव जतणा, जा वुत्ता णायगादीया॥ गए। एक भाई भिक्षा के लिए जाता। दूसरा भाई प्रयत्नपूर्वक संयती दोनों अर्थात् निजक और अनिजक के साथ मार्ग में उसका संरक्षण करता। प्रश्न होता है कि उन्होंने उसकी ऐसी जा रही हो अथवा किन्हीं एक के साथ जा रही हो अथवा रक्षा क्यों की? एक प्राचीन कथन है-इक्ष्वाकु राजा अपनी अकेली जा रही हो-ये तीन प्रकार हैं। यहां पूर्वोक्त यतना प्रजा का सम्यक् पालन करते हुए अथवा अपालन करते हुए ज्ञातक आदि के क्रम से जाननी चाहिए।
क्रमशः उनके पुण्य-पाप का दसवां भाग और वृष्णी-हरिवंश
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