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==बृहत्कल्पभाष्यम्
स्वामी न हो, जो वृक्ष अस्वाधीन हो, वहां इस प्रकार कह गृहपति अवग्रह, सागारिक अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। कर अनुज्ञा ले-'जिस किसी के अधीन यह अवग्रह हो वह इनमें राजावग्रह आदि चार अवग्रह अनवस्थित होते हैं। अनुज्ञा प्रदान करे'-यदि वह वृक्ष 'क्रूरसुरपरिगृहीत' हो तो शक्र का अवग्रह पाषाण की रेखा की भांति तीर्थ पर्यन्त 'काणेष्टकागृह गम' के अनुसार कायोत्सर्ग से देवता को
रहती है। आकंपित कर स्वाध्याय आदि करे।
४७७९.सोऊण भरहराया, सव्विड्डी आगतो जिणसगासं। ४७७५.नेच्छंतेण व अन्ने, ईसालुसुरेण जे अणुण्णायं। वंदिय नमंसिया णं, भत्तेण निमंतणं कुणइ।।
तत्थ वि सो च्चेव गमो, सगारिपिंडम्मि मग्गणता॥ एक बार महाराज भरत ने सुना कि भगवान् ऋषभ ईर्ष्यालु देवता ने गृहस्थों द्वारा न चाहते हुए भी अष्टापद पर्वत पर समवसृत हुए हैं। तब वह पांच सौ शकट जो वृक्षमूल साधुओं को अनुज्ञापित किया है, वहां भी भक्तपान से भरकर साधुओं के लिए लेकर अपनी सर्वऋद्धि वही विकल्प है-पूर्वानुज्ञापना अवस्थान जानना चाहिए। से जिनेश्वरदेव के पास आया और वंदना, नमस्कार कर वहां स्थित मुनियों को सागारिकपिंड की मार्गणा करनी भक्तपान के लिए साधुओं को निमंत्रित किया। चाहिए।
४७८०.पीलाकरं वताणं, एय अम्हं न कप्पए घेत्तुं। ४७७६.जक्खो च्चिय होइ तरो, बलिमादीगिण्हणे भवे दोसा।
अणवज्जं णिरुवहयं, भुजंति य साहुणो भिक्खं॥ सुविणे ओयरिए वा, संखडिकारावणमभिक्खं॥ तब साधुओं ने कहा-यह भक्तपान व्रतों के लिए जिस यक्ष ने जिस वृक्ष को परिगृहीत किया है, वही पीड़ाकारक हैं। इसे ग्रहण करने में हम नहीं कल्पता है। अतः 'तर'-शय्यातर होता है। जो बलि आदि दिया जाता है, साधु प्रासुक और निरुपहत-एषणीय भिक्षा लेते हैं और खाते वह शय्यातरपिंड है। उसको लेने से आज्ञाभंग आदि दोष हैं, अनेषणीय नहीं लेते। होते हैं। अथवा यक्ष वृक्षस्वामी को स्वप्न में आकर ४७८१.तं वयणं सोऊणं, महता दुक्खेण अद्दितो भरहो। कहे-मुझे उद्दिष्ट कर बार-बार संखडी करे तो मैं कुछ समणा अणुग्गहं मे, ण करिति अहो! अहं चत्तो। भी नहीं कहूंगा। इस प्रकार बार-बार संखडी करने पर साधुओं के वचन सुनकर भरत अत्यधिक मानसिक दुःख वह शय्यातरपिंड होता है। यह सोचकर उसे नहीं लेना से पीड़ित हुआ। उसने सोचा-ये श्रमण मेरा अनुग्रह नहीं चाहिए।
करते हैं। अहो! मैं इनसे परित्यक्त हो गया हूं।
४७८२.नाऊण तस्स भावं, देवेंदो तस्स जाणणट्ठाए। से वत्थूसु वावडेसु वोगडेसु
वंदिय नमंसिया णं, पंचविहं उग्गहं पुच्छे।। परपरिग्गहिएसु भिक्खुभावस्स अट्ठाए
देवेन्द्र ने भरत के भावों को जानकर उसको अवग्रह का दोच्चं पि ओग्गहे अणुण्णवेयव्वे
स्वरूप ज्ञापित करने के लिए, भगवान् को वंदना, नमस्कार सिया-अहालंदमवि ओग्गहे॥
कर पांच प्रकार के अवग्रह के विषय में पूछा। ४७८३.अट्ठावयम्मि सेले, आदिकरो केवली अमियनाणी।
सक्कस्स य भरहस्स य, उग्गहपुच्छं परिकहेइ॥ ४७७७.सागारिगी उग्गहमग्गणेयं,
अष्टापद पर्वत पर आदिकर, केवली, अमितज्ञानी स केच्चिरं वाकड मो कहं वा। भगवान् ऋषभ शक्र तथा भरत के सम्मुख अवग्रह-पृच्छा का इदाणि राउग्गहमग्गणा उ,
समाधान देते हैं। केणं विदिण्णो स कया कहं वा॥ ४७८४.देविंद-रायउग्गह, गहवति सागारिए य साहम्मी। सागारिक अवग्रह की मार्गणा की गई है। वह कितने पंचविहम्मि परूविते, णायव्वं जं जहिं कमइ॥ काल का तथा कैसे होता है, यह पूर्वसूत्र में व्याख्यात है। भगवान् ने पांच प्रकार के अवग्रहों का निरूपण कियाअब राजावग्रह की मार्गणा की जाती है-उसको किसने कब, देवेन्द्र अवग्रह, राजअवग्रह, गृहपति अवग्रह, सागारिक कैसे अनुज्ञात है ? इसकी व्याख्या की जाती है।
अवग्रह और साधर्मिक अवग्रह। इन पांच प्रकार के अवग्रहों ४७७८.अणवट्टिया तहिं होति उग्गहा रायमादिणो चउरो। की प्ररूपणा को जो जहां अवतरित है उसको जानना चाहिए
पासाणम्मि व लेहा, जा तित्थं ताव सक्कस्स॥ (पीठिका गाथा ६७० आदि में जो निरूपित किया है, वह यहां अवग्रह के पांच प्रकार हैं-देवेन्द्र अवग्रह, राजावग्रह, भी जानना चाहिए।)
(सूत्र ३१)
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