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________________ तीसरा उद्देशक अव्यापृत, अव्याकृत, अपरपरिगृहीत, अमरपरिगृहीत–इनकी व्याख्या आगे है। ४७६५.दाइय-गण-गोट्ठीणं, सेणी साहारणं व दुगमादी। वत्थुम्मि एत्थ पगयं, ऊसित खाते तदुभए य॥ दामाद, गण, गोष्ठी, श्रेणी आदि दो, तीन आदि की संख्या में जन प्रतिनिधियों का जो क्षेत्र होता है वह साधारण कहा जाता है। प्रस्तुत में वास्तु का अधिकार है। वास्तु के तीन प्रकार हैं-उच्छ्रित-प्रासाद, खात-भूमीगत मकान (अन्डर-ग्राउंड), तदुभय-भूमीगत मकान सहित प्रासाद। ४७६६.सडिय-पडियं ण कीरइ, जहिगं अव्वावडं तयं वत्थु। अव्वोगडमविभत्तं, अणहिट्ठियमण्णपक्खेणं॥ जो गृह शटित और पतित होता है, जो किसी के काम नहीं आता, वह वास्तु अव्याप्त कहलाती है। अव्याकृत वह गृह है जो अभी तक दायादों द्वारा अविभक्त है। अपरपरिगृहीत अर्थात् दूसरे पक्ष द्वारा अगृहीत। उसका स्वामी ही शय्यातर होता है। ४७६७.अवरो सु च्चिय सामी, जेण विदिण्णं तु तप्पढमताए। अमरपरिग्गहियं पुण, देउलिया रुक्खमादी वा॥ अपर का अर्थ है जिसने प्रथमतया साधुओं को वह दिया है, वह उसका स्वामी है। अमरपरिगृहीत अर्थात् देवकुलिका, वृक्ष आदि जो वानमन्तरदेव अधिष्ठित हों। ४७६८.अव्वावडे कुटुंबी, काणिट्टऽव्वोगडे य रायगिहे। अपरपरे सो चेव उ, अमरे रुक्खे पिसायघरे॥ अव्यापृत गृह संबंधी कुटुम्बी का दृष्टांत है। अव्याकृत में राजगृह के वणिक् का दृष्टांत है जिसने काणिट्ठ-पाषाणमय ईंटों से मकान बनाया था। अपरिपरिगृहीत में भी यही दृष्टांत है। अमरपरिगृहीत में वृक्ष अथवा पिशाचगृह का निदर्शन है। इनका वर्णन आगे की गाथाओं में है। ४७६९.निम्मवणं पासाए, संखडि जक्ख सुमिणे य कंटीय। अण्णं वा वावारं, ण कुणति अव्वावडं तेणं॥ एक कौटुंबिक ने प्रासाद बनवाया और सोचा आज संखडी-जीमनवार कर कल में इस प्रासाद में प्रवेश करूंगा। रात्री में स्वप्न में वानव्यन्तरदेव ने कहा यदि तुम इस घर में प्रवेश करोगे तो सारे कुटुंब को मार डालूंगा। तब कौटुंबिक ने उस प्रासाद के चारों ओर कांटों की बाड़ लगा दी। कोई उसको काम में नहीं लेता था। यह अव्याप्त का उदाहरण है। १-२.देखें कथा परिशिष्ट, नं. १०३-१०४। ४७७०.इड्डित्तणे आसि घरं महल्लं, कालेण तं खीणधणं च जायं। ते उम्मरीयस्स भया कुडीए, दाउंठिया पासि घरं जईणं॥ एक ऋद्धिमान् वणिक ने बड़ा गृह बनवाया। कालान्तर में वणिक् निर्धन हो गया। वहां प्रति उदुम्बर (देहली) का एकएक रुपये का कर लगता था। उस भय से वणिक् कुटीरक में रहने लगा। उसने उस घर को साधुओं के निवास के लिए दे दिया। यह अव्याकृत का उदाहरण है। ४७७१.पुवट्ठियऽणुण्णवियं, ठायंतऽण्णे वि तत्थ ते य गता। एवं सुण्णमसुण्णे, सो च्चेव य उग्गहो होइ।। अव्यापृत या अव्याकृत गृह में पहले से स्थित साधु अनुज्ञा लेकर ही वहां रह रहे थे। अन्य साधु भी वहां आकर ठहर जाते हैं। पूर्व साधु कल्प पूरा होने पर अन्यत्र चले जाते हैं। इस प्रकार शून्य या अशून्य होने पर वहां रहने वाले साधुओं के वही अवग्रह होता है, पुनः अनुज्ञापना करने की आवश्यकता नहीं होती। ४७७२.अपरपरिग्गहितं पुण, अपरे अपरे जती जइ उति। अव्वोकडं पि तं चिय, दोन्नि वि अत्था अपरसद्दे।। अपरपरिगृहीत के दो अर्थ हैं जिसने सबसे पहले साधुओं को वह दिया है, वही उसका स्वामी है-यह अपर का एक अर्थ है। जहां अपर-अपर मुनि आकर ठहरते हैं, वह है अपर। यह दूसरा अर्थ है। अव्याकृत का भी यही अर्थ है-जो सबके लिए साधारण है। इस प्रकार अपर शब्द के दोनों अर्थ हैं। (अपरपरिगृहीत का अर्थ है वृक्ष अथवा वृक्ष के नीचे बना हुआ मकान। वहां पहले से जो साधु अनुज्ञा लेकर स्थित हैं। शेष मुनियों के लिए भी वही अवग्रह है।) ४७७३.भूयाइपरिग्गहिते, दुमम्मि तमणुण्णवित्तु सज्झायं। एगेण अणुण्णविए, सो च्चेव य उग्गहो सेसे। जो द्रुम भूत आदि व्यन्तर देव से परिगृहीत है, वहां व्यंतर की अनुज्ञा लेकर स्वाध्याय के लिए जाना होता है। एक द्वारा अनुज्ञापित होने पर शेष मुनियों के लिए वही अवग्रह है। ४७७४.सामी अणुण्णविज्जइ, दुमस्स जस्सोग्गहो व्व असहीणे। कूरसुरपरिग्गहिते, दुमम्मि काणिट्टगाण गमो॥ जो द्रुम का स्वामी है, वह अनज्ञा देता है। जिसका कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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