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________________ कथा परिशिष्ट =७१५ अतिरिक्त तुम दो, चार, दस अश्व ले लो। अश्वरक्षक अपनी मांग पर अडिग रहा। अश्वस्वामी ने सोचा-यदि मैं इसका अपनी कन्या से विवाह कर इसे घरजमाता बनाऊं तो ये अश्व यहीं रह जाएंगे। उसने अपने मन की बात पत्नी से कही। वह ऐसा करना नहीं चाहती थी। तब अश्वस्वामी ने उसे समझाने के लिए एक दृष्टांत कहा-एक बढ़ई ने अपनी कन्या का विवाह अपने भानजे से कर उसे गृहजामाता के रूप घर में ही रख लिया। वह आलसी था। पत्नी के कहने पर वह कुठार लेकर जंगल में जाता परन्तु काष्ठ बिना लिए ही लौट आता। छह महीने बीत गए। एक दिन उसे 'कृष्णचित्रकाष्ठ' प्राप्त हुआ। उसने उससे धान्य मापने का कुलक बनाया और उसे एक लाख मुद्राओं में बेचने के लिए अपनी पत्नी को बाजार में भेजा। एक लाख मूल्य में उसे कौन खरीदे ? अंत में एक बुद्धिमान् ग्राहक वणिक् आया। वह पारखी था। उस धान्यमापक पात्र का गुण था कि उससे जो धान्य मापा जाता, वह कम नहीं होता था। उस वणिक ने एक लाख मुद्राएं देकर पात्र खरीद लिया। बढ़ई के जमाता ने अपने कुटुम्ब को धन-धान्य से समृद्ध बना दिया।' अतः सलक्षण अश्वों के लिए पुत्री का विवाह अश्वरक्षक से करना श्रेष्ठ है। ऐसा चिंतन कर उससे कन्या का विवाह कर उसे घरजामाता रख लिया। गा. ३९५९,३९६०वृ. पृ. १०८५ ९१. वारत्तग दृष्टान्त वारत्तणपुर नगर में राजा अभयसेन राज्य करता था। उसका मंत्री वारत्तग था। मंत्री ने पुत्र को घर का सारा दायित्व दिया और स्वयं दीक्षित हो गया। पुत्र ने पितृभक्ति के कारण पिता की स्मृति में एक देवकुल बनवाया। उसमें पात्र, रजोहरण, मुखवस्त्रिका धारण किए हुए पिता की प्रतिमा स्थापित की। एक बार वहां एक पात्रचारी मुनि आया। उसने पात्र में भिक्षा ग्रहण कर आहार किया। फिर उसी पात्र में पानी लिया। थोड़ी देर बाद लघुशंका पात्र में कर परिष्ठापन किया। देवकुल के लोगों ने उसके इस आचार को देखा और सोचा यह साधु एकपात्रधारी है। ये बड़ी शंका (पंचमी) का कार्य कैसे करता है? यथास्थिति जानकर उसे निकाल दिया। फिर कोई वैसा साधु वहां आता तो उसे रहने का स्थान नहीं मिलता। गा. ४०६६ वृ. पृ. १११० ९२. राजा मुरुण्ड कुसुमपुर नगर का राजा मुरुण्ड था। उसकी बहिन छोटी उम्र में विधवा हो गई। उसने अपने भाई राजा मुरुण्ड से कहा-मैं दीक्षा लेना चाहती हूं। राजा ने सोचा-बहिन को किसके पास दीक्षित करें? परीक्षा के निमित्त एक योजना बनायी। उसने महावत को आदेश दिया कि इधर से जो भी साध्वियां गुजरे उनकी ओर हाथी छोड़ देना और उनको कहना-तुम अपने वस्त्र उतार दो अन्यथा हाथी मार देगा। महावत ने आदेश का पालन किया। राजा गवाक्ष में बैठा सारा दृश्य देखने लगा। एक संन्यासिनी उधर से गुजरी उसने भय से सारे वस्त्र उतार दिये। राजा ने जान लिया यह पाखण्डी है। थोड़ी देर बाद एक जैन साध्वी उधर से निकली। उसके साथ वही व्यवहार किया। उसने मुखवस्त्रिका, निषद्या आदि एक-एक वस्त्र डालना प्रारंभ किया। इतने में ही नगरजन एकत्रित हो गए और महावत को कहा-इस तपस्विनी को क्यों सता रहे हो? हाथी को क्यों पीछे कर रहे हो? राजा का आदेश पाकर उसने हाथी को रोकने का प्रयत्न किया। राजा ने सोचा-इस साध्वी ने इतने वस्त्र छोड़ दिए पर अनावृत नहीं हुई। राजा ने उसी साध्वी के पास अपनी बहिन को दीक्षित कर दिया। गा. ४१२३.४१२५ वृ. पृ. ११२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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