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________________ ७१६ = बृहत्कल्पभाष्यम् ९३. साधु कौन? प्रव्रज्या ग्रहण करने की भावना से एक युवक गुरु के पास जा रहा था। मार्ग में उसने एक कुशील स्त्री के घर के बाहर में रात्रि व्यतीत की। वहां एक यक्ष निरंतर आता था, किन्तु उस रात वह नहीं आया। दूसरी रात्रि में स्त्री ने यक्ष से पूछा-तुम कल क्यों नहीं आए? यक्ष ने कहा-कल यहां यति था। इसलिए नहीं आया। साधु ब्रह्मचर्य के तेज से प्रदीप्त होते हैं, उस तेज का अतिक्रमण कर भीतर आना संभव नहीं है। स्त्री ने कहा-असत्य क्यों बोल रहे हो? कल तो यहां एक तरुण सोया हुआ था। साधु तो आज सो रहा है। उसे लांघकर कैसे आ गए। यक्ष ने कहा कल जो सो रहा था वह प्रव्रज्याभिमुखी था। आज तुम्हारे घर के बाहर जो सो रहा है, वह यतिवेश में चोर है। चारित्र से भ्रष्ट होकर वह चोरी करना चाहता है। गा. ४१९३,४१९४७. पृ. ११३९ ९४. भुततडाग भृगुकच्छ के एक वणिक् को भूतों के अस्तित्व पर विश्वास नहीं था। एक बार वह वणिक् उज्जयिनी नगरी में आया। उसे ज्ञात हुआ कि कुत्रिकापण में भूत आदि प्राप्त होते हैं। वह वहां गया और कुत्रिकापण के स्वामी से 'भूत' देने की बात कही। उस दुकानदार ने सोचा यह वणिक् मुझे धोखा देना चाहता है, इसलिए मैं इससे 'भूत' का इतना मूल्य मांगूं कि यह उसे खरीद ही न सके। उसने कहा यदि तुम मुझे एक लाख रुपये दोगे तो मैं तुम्हें भूत दूंगा। वणिक् ने इतना मूल्य देना स्वीकार कर लिया। तब दुकानदार बोला-देखो, तुमको पांच दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। फिर मैं तुम्हें भूत दे दूंगा। दुकानदार ने तेले की तपस्या कर अपने अधिष्ठाता देव से पूछा। देव ने कहा-तुम वणिक् को निर्धारित मूल्य में भूत दे दो। पर उसको कह देना कि यह भूत विचित्र है। इसे सतत कार्य में व्याप्त रखना होगा। यदि तुम इसको कोई कार्य नहीं दोगे, तो यह तुम्हें मार डालेगा। पांचवें दिन वणिक् आया और भूत की मांग की। दुकानदार ने देवता द्वारा कथित बात बताकर उसे भूत दे दिया। भूत को साथ ले वणिक् भृगुकच्छ चला गया। वहां जाते ही भूत बोला-मुझे कार्य बताओ। वणिक् ने कार्य बताया। भूत ने उसे तत्काल सम्पन्न कर दूसरे कार्य की मांग की। वणिक् के सारे कार्य सम्पन्न हो गए। भूत ने फिर नए कार्य की मांग की, तब वणिक् ने बुद्धिमत्ता से कहा-तुम यहां एक ऊंचा स्तंभ गाड़ो और उस पर तब तक चढ़ते-उतरते रहो जब तक कि मैं तुम्हें दूसरे काम में नियोजित न करूं। यह सुनते ही भूत ने कहा-मैं हारा, तुम जीते। मैं अपनी पराजय के स्मृतिचिह्न के रूप में एक तड़ाग बनाना चाहता हूं। तुम जाते हुए जब तक पीछे मुड़कर नहीं देखोगे, उतने क्षेत्र में एक तालाब निर्मित हो जाएगा। उस वणिक् ने अश्व पर आरूढ़ होकर बारह योजन तक जाने के बाद मुड़कर पीछे देखा। भूत ने तत्काल वहां भृगुकच्छ के उत्तरीभाग में 'भूततड़ाग' नाम का तालाब निर्मित कर दिया। तोसलीनगर का वणिक् उज्जयिनी में आया और एक कुत्रिकापण से ऋषिपाल नामक वानव्यन्तर को खरीदा। आपणिक ने कहा-इस वानव्यंतर को निरंतर कार्य में व्याप्त रखना, अन्यथा यह तुमको मार देगा। वणिक उसे तोसलीनगर ले गया और अपने सारे कार्य करवाकर अंत में उसी प्रकार खंभे पर चढ़ने-उतरने की बात कहकर उसे पराजित कर दिया। उसने भी 'ऋषितडाग' नामक तलाब बना दिया। गा.४२२०-४२२३७. पृ.११४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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