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________________ छठा उद्देशक ६२०६.कण्णम्मि एस सीहो, ६२१०.छक्कायाण विराहण, झामण तेणे निवायणे चेव। गहितो अह धारिओ य सो हत्थी। अगड विसमे पडेज्ज व, तम्हा रक्खंति जयणाए॥ खुड्डलतरिया तुज्झं, क्षिप्तचित्त साध्वी छहकाय की विराधना करती है, अग्नि ते वि य गमिया पुरा पाला॥ जला देती है, चोरी कर लेती है, स्वयं या दूसरे को गिरा कोई साध्वी हाथी या सिंह के भय से क्षिप्तचित्त हो जाती देती है, कुएं में या विषम-गढ़े में जा गिरती है, इसलिए है। उसका प्रतिकार यह है-पहले से ही हस्तिपाल, सिंहपाल यतनापूर्वक उसका संरक्षण किया जाता है। आदि को समझा दिया जाए। फिर क्षिप्तचित्त साध्वी को वहां ६२११.सस्सगिहादीणि दहे, तेणेज्ज व सा सयं व हीरेज्जा। ले जाया जाए। फिर उस साध्वी से लघुतरी साध्वी सिंह के मारण पिट्टणमुभए, तद्दोसा जं च सेसाणं॥ कानों को पकड़ती है तथा हाथी को धाडित करती है, फिर वह धान्य के गृहों आदि को जला डालती है। वह चोरी भी वे शांत रहते हैं। फिर क्षिसचित्त साध्वी को कहते हैं- करती है अथवा स्वयं उसका कोई हरण कर लेता है। उसे देखो, यह छोटी साध्वी भी नहीं डरती। क्या तुम इससे कोई पीटे या मारे या स्वयं वह अपने को पीटे या मारे। उस छोटी हो, जो हाथी आदि से डरती हो? धैर्य रखो। वह क्षिसचित्त साध्वी के दोष से शेष साध्वियों का पिट्टन-मारण स्वस्थ हो जाती है। आदि होता है। ६२०७.सत्थडग्गी थंभेतुं, पणोल्लणं णस्सते य सो हत्थी। ६२१२.महिड्डिए उट्ठ निवेसणे य, थेरी चम्म विकड्डण, अलायचक्कं तु दोसुं तु॥ आहार विविंचणा विउस्सग्गो। जो शस्त्र और अग्नि के भय से क्षिप्तचित्त हो तो उसके रक्खंताण य फिडिया, समक्ष शस्त्र और अग्नि का स्तंभन कर उसको पैरों से अगवेसणे होति चउगुरुगा। कुचले। हाथी के भय से क्षिप्सचित्त साध्वी को हाथी को महर्द्धिक, उत्थान, निवेशन, आहार, विगिंचना, व्युत्सर्ग, पराङ्मुख जाता हुआ दिखाए। गर्जन से भीत साध्वी को कहे- रक्षा करते हुए भी वह कहीं चली जाए, उसकी गवेषणा न यह शब्द चर्म को खींचने से होता है। वैसा शब्द उसे सुनाए। करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त। यह द्वार गाथा है। इसका उसका भय नष्ट हो जाता है। अग्नि और विद्युत् इन दोनों के विस्तार इस प्रकार है। भय से भीत साध्वी को बार-बार अलातचक्र दिखाए। वह ६२१३.अम्हं एत्थ पिसादी, रक्खंताणं पि फिट्टति कताई। भयमुक्त हो सकती है। सा हु परिरक्खियव्वा, महिड्दिगाऽऽरक्खिए कहणा॥ ६२०८.एईए जिता मि अहं, तं पुण सहसा ण लक्खियं णाए। महर्द्धिक अर्थात् नगर का रक्षक। उसको कहना चाहिए धिक्कतकतितव लज्जाविताए पउणायई खुड्डी। इस उपाश्रय में हम एक साध्वी का संरक्षण कर रहे हैं। ६२०९.तह वि य अठायमाणे, हमारे संरक्षण से वह पिशाची-ग्रथिल साध्वी कहीं भाग जाए सारक्खमरक्खणे य चउगुरुगा। तो आप उसकी रक्षा करें। आणाइणो य दोसा, ६२१४.मिउबंधेहिं तहा णं, जमेंति जह सा सयं तु उठेति। विराहण इमेहि ठाणेहिं॥ उव्वरग सत्थरहिते, बाहि कुडंडे असुन्नं च॥ जिस चारिका से वह साध्वी पराजित होकर क्षिप्तचित्त उस क्षिप्तचित्त साध्वी को मदु बंधनों से बांध कर रखें। हुई थी वह चारिका वहां आकर कहती है-मैं इस साध्वी से बंधन ऐसे हो जिससे वह स्वयं उठ सके, बैठ सके। उसको पराजित हो गई थी। इसने सहसा अपनी जय को लक्षित ऐसे कमरे में रखें जहां शस्त्र न हों। उस कमरे का द्वार बंद नहीं किया। तब उसे धिक्कृत किया गया और कपट करने रखें और कुंडी लगा दे। स्थान को अशून्य न रखें अर्थात् कोई के कारण लज्जित कर वहां से निकाल दिया गया। यह न कोई जागता रहे। देख वह क्षुल्लिका-साध्वी स्वस्थ हो जाती है तो ठीक है। ६२१५.उव्वरगस्स उ असती, इस प्रकार यतना करने पर भी यदि वह स्वस्थ नहीं पुव्वकतऽसती य खम्मते अगडो। होती है तो उसका संरक्षण वक्ष्यमाण यतना से करना तस्सोवरिं च चक्कं, चाहिए। यदि संरक्षण नहीं किया जाए तो चतुर्गुरु का ण छिवति जह उप्फिडंती वि॥ प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष तथा इन स्थानों से अपवरक के अभाव में उस साध्वी को पहले खोदे हुए विराधना होती है। पानी रहित कुएं में या नए गढ़े को खोद कर उसमें रख दे। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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