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________________ ६०० तो गच्छ से निष्काशित होने पर प्रथम दो मास तक तप प्रायश्चित्त और शेष दस मासों में पांच रातदिन के छेद के क्रम से सांवत्सरिक पर्व तक छेद होता है। पर्युषणा रात्री में प्रतिक्रमण करने के पश्चात् अधिकरण होता है तो यह विधि है। पर्युषणा के पारणे वाले दिन से परिहीयमान उस दिन तक ले जाएं जहां तप या मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है, छेद नहीं। प्रतिक्रमण करने पर अधिकरण हुआ है तो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर लेने पर केवल मूल का ही प्रायश्चित्त आता है। ५७७१. एवं एक्क्कदिणे, हवेत्तु ठवणादिणे वि एमेव । चेइयवंदण सारे, तम्मि वि काले तिमासगुरु ॥ इस प्रकार एक-एक दिन कम करते करते स्थापना दिवस अर्थात् पर्युषणादिवस तक ले जाएं। उस दिन सूर्योदय से पूर्व कलह उत्पन्न हो तो इसी प्रकार करना चाहिए- पहले स्वाध्याय स्थापित करने वाले उसे उपशांत होने के लिए कहे, फिर वंदनार्थ जाने वाले उसे कहे, अनुपशांत होने पर प्रतिक्रमण की वेला में कहे। फिर भी अनुपशांत रहने पर उस मुनि को तीन गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है । ५७७२. पडिकंते पुण मूलं, पडिक्कमंते व होज्ज अधिकरणं । संवच्छरमुस्सम्गे, कयम्मि मूलं न सेसाई ॥ पर्युषणा के दिन अधिकरणों की व्यवच्छित्ति कर देनी चाहिए। यदि प्रतिक्रमण के पश्चात् अधिकरण रहता है तो उसे मूल का प्रायश्चित्त आता है। प्रतिक्रमण प्रारंभ कर सांवत्सरिक कायोत्सर्ग पर्यन्त यदि अधिकरण रहता है तो मूल प्रायश्चित्त ही आता है, शेष प्रायश्चित्त नहीं। ५७७३. संवच्छरं च रुट्ठ, आयरिओ रक्खए पयत्तेण । जति णाम उवसमेज्जा, पव्वयरातीसरिसरोसो ॥ आचार्य उस रुष्ट मुनि की संवत्सर पर्यन्त रक्षा करते हैं कि वह तब तक उपशांत हो जाए। यदि संवत्सर में भी उपशांत नहीं होता है तो मानना चाहिए की उसका रोष पर्वतराजी सदृश है। ५७७४. अण्णे दो आयरिया, एक्केकं वरिसमेत्तमेअस्स । तेण परं गिहि एसो. वितियपदं रायपव्वहए ॥ वह मुनि एक वर्ष के पश्चात् अपने मूलाचार्य के पास से निर्गत होकर अन्य दो आचार्यों के पास जाता है। यहां प्रत्येक के पास एक-एक वर्ष रहता है। वे उसका संरक्षण करते हैं। उसके बाद वह गृही हो जाता है। अपवादपद में राजप्रवजित होने पर उसके लिंग का अपहार नहीं किया जाता । १. देखें गाथा ५७८० । Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् ५७७५. एमेव गणा-ऽऽयरिए, गच्छम्मि तवो उ तिन्नि पक्खाई। दो पक्खा आयरिए, पुच्छा य कुमारदिट्ठतो ॥ इसी प्रकार उपाध्याय और आचार्य के विषय में जानना चाहिए। उपाध्याय यदि अनुपशांत होकर गण में रहते हैं तो तीन पक्षों तक तपः प्रायश्चित्त और पश्चात् छेद। अनुपशांत आचार्य को दो पक्ष तप और पश्चात् छेद। शिष्य ने पूछासमान अपराध पर प्रायश्चित्त विषम क्यों ? यहां कुमार का दृष्टांत है। ५७७६. पणयाल दिणा गणिणो, चउहा काऊण साहिएक्कारा। भत्तट्ठण सज्झाए, वंदण लावे य हावेति ॥ गणी - उपाध्याय के ४५ दिनों में चार का भाग देने पर १९६ दिन हुए। गच्छ उपाध्याय के साथ इतने दिनों तक भक्तार्थन इतने ही दिनों तक स्वाध्याय, वंदना और आलापना आदि करता है । पश्चात् दिन कम कर देता है । ५७७७. तीस दिणे आयरिए, अद्धट्ठ दिणे य हावणा तत्थ । , गच्छेण चउपदेहि तु णिच्छूडे लग्गती छेदो ॥ आचार्य के तीस दिनों को चार का भाग देने पर साढ़े सात दिन होते हैं। गच्छ उनके साथ चारों भक्तार्थन, स्वाध्याय, वंदनक और आलाप साढ़े सात दिन साढ़े सात दिन करता है। उसके पश्चात् जब गच्छ इन चारों पदों को छोड़ देता है और तब आचार्य पन्द्रह दिन के छेद के क्रम से संलग्न हो जाता है। ५७७८. संकेतो अण्णगणं, सगणेण य वज्जितो चतुपवेहिं । आयरिओ पुण नवरिं, वंदण-लावेहि णं सारे ।। जब स्वगण में चारों पदों भक्तार्थन आदि से वर्जित हो जाता है तब आचार्य अन्य गण में संक्रान्त करता है। अन्य गण का आचार्य उसकी केवल वंदना और आलाप से एक वर्ष तक सारणा करता है । ५७७९. सज्झायमाइएहिं दिणे दिणे सारणा परगणे वि नवरं पुण णाणत्तं तवो गुरुस्सेतरे छेदो ॥ परगण में संक्रान्त आचार्य की प्रतिदिन स्वाध्याय आदि पदों से सारणा की जाती है। यह नानात्व- विशेष है, यदि अन्य गण का आचार्य यदि सारणा नहीं करता है तो उसे तपः प्रायश्चित्त आता है तथा अधिकरणकारी आचार्य को छेद आता है। ५७८०, सरिसावराधे दंडो, जुवरण्णो भोगहरण-बंधादी । मज्झिम बंध- वहादी, अवत्ति कन्नादि खिंसा वा ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.arg
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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