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________________ पांचवां उद्देशक में चार मास, परगण में भी चार मास। इतने पर यदि आहार अभी इनके जीर्ण नहीं हुआ है। उसे तीसरा मासगुरु उपशांत होता है तो मूल और उपशांत नहीं होता है तो गण आता है। आर्य! साधु प्रतिक्रमण नहीं कर रहे हैं। तुम से निष्काशन कर देना चाहिए। उपशांत हो जाओ। वह कहता है-सारे श्रमण निरतिचार हैं। ५७६१.चोएइ राग-दोसे, सगण परगणे इमं तु नाणत्तं। उसे चौथा मासगुरु आता है। प्रभातकाल में अधिकरण होने पंतावण निच्छुभणं, पर-कुलघर घाडिए ण गया॥ पर यह विधि है। शिष्य कहता है-यह राग-द्वेष की प्रवृत्ति है। स्वगण में ५७६५.अन्नम्मि वि कालम्मिं, पढंत हिंडत मंडली वासे। थोड़ा छेद और परगण में अधिक छेद। गुरु ने कहा-यह तिन्नि व दोन्नि व मासा, होति पडिक्वंते गुरुगा उ॥ हमारा राग-द्वेष नहीं है। यहां एक दृष्टांत है-एक गृहस्थ के अन्य काल में अर्थात् पढ़ते समय, भिक्षाचर्या के लिए चार भार्यायें थीं। चारों के समान अपराध पर उसने चारों को घूमते समय, मंडली में भोजन करते समय तथा आवश्यक पीटकर घर से निकाल दिया। एक किसी परघर में चली गई। वेला में यदि अधिकरण होता है तो तीन या दो गुरुमास और दूसरी कुलघर में, तीसरी गृहस्थ के मित्र के घर चली गई। प्रतिक्रमण कर लेने पर भी उपशांत न होने पर चार गुरुमास चौथी पीटे जाने पर भी वहीं रही। गृहस्थ ने संतुष्ट होकर का प्रायश्चित्त है। उसको घर की स्वामिनी बना दिया। तीसरी पत्नी जो मित्र के ५७६६.एवं दिवसे दिवसे, चाउक्कालं तु सारणा तस्स। घर गई थी, उसे खरंटित कर बुला लिया। दूसरी पत्नी जो जति वारे ण सारेती, गुरुगो गुरुगो तती वारे॥ कुलगृह में गई थी, उसे भी उपालंभ देकर बुला लिया। इस प्रकार प्रतिदिन चतुष्काल उसकी सारणा करनी पहली पत्नी जो परगृह में चली गई थी, उसे अत्यधिक दंडित चाहिए। जितनी बार सारण नहीं की जाती उतनी बार कर बुला लिया। इसी प्रकार परस्थानीय होते हैं अवसन्न, मासगुरु का प्रायश्चित्त है। कुलगृह स्थानीय अन्य सांभोगिक, मित्र स्थानीय होते हैं ५७६७.एवं तु अगीतत्थे, गीतत्थे सारिए गुरू सुद्धो। सांभोगिक, घर से न जाने के समान होता है स्वगच्छ। जति तं गुरू ण सारे, आवत्ती होइ दोण्हं पि॥ ५७६२.गच्छा अणिग्गयस्सा, अणुवसमंतस्सिमो विही होइ। यह सारणा विधि अगीतार्थ के लिए है। गीतार्थ मुनि की सज्झाय भिक्ख भत्तट्ठ वासए चउर एक्कक्के॥ एक दिन चारों स्थिति में सारणा करने पर गुरु शुद्ध हैं। यदि गच्छ से अनिर्गत और अनुपशांत की यह विधि होती है। गुरु सारणा नहीं करते हैं तो आचार्य और अनुपशांत मुनिस्वाध्याय, भिक्षाचर्या के समय, भक्तार्थनकाल में तथा दोनों को प्रायश्चित्त आता है। प्रादोषिक आवश्यक काल में इन चारों के लिए एक-एक दिन ५७६८.गच्छो य दोन्नि मासे, पक्खे पक्खे इमं परिहवेति। में उस मुनि को प्रेरित न करे। भत्तट्टण सज्झायं, वंदण लावं ततो परेणं ।। ५७६३.दुप्पडिलेहियमादिसु, चोदिए सम्मं तु अपडिवज्जंते। यदि गच्छ अनुपशांत का दो मास तक सारणा करता है न वि पट्ठवेंति उवसम, कालो ण सुद्धो जियं वा सिं॥ और यदि वह उपशांत नहीं होता है तो पक्ष-पक्ष में इन चीजों दुष्प्रतिलेखन आदि में प्रेरित करने पर यदि वह की कमी होती जाती है। पहले पक्ष में उसके साथ भक्तार्थन, सम्यग्रूप से स्वीकार नहीं करता है तो अधिकरण होता है। दूसरे पक्ष में स्वाध्याय, तीसरे पक्ष में वन्दनक तथा चौथे आचार्य कहते हैं-आर्य! उपशांत हो जाओ। ये मुनि पक्ष में उसके साथ आलाप भी बंद कर देते हैं। स्वाध्याय की प्रस्थापना नहीं कर रहे हैं। वह कहता है-ठीक ५७६९.आयरिय चउरो मासे, संभुंजति चउरो देइ सज्झायं। है, अवश्य ही काल शुद्ध नहीं है। अथवा इनके सूत्रार्थ वंदण लावं चउरो, तेण परं मूल निच्छुहणा॥ परिचित है अतः ये स्वाध्याय की प्रस्थापना नहीं कर रहे हैं। आचार्य चार मास तक उसके साथ भोजन करते हैं, चार इस प्रकार कहने पर मासगुरु का प्रायश्चित्त आता है। मास तक उसको स्वाध्याय देते हैं और चार मास तक वंदना ५७६४.णोतरणे अभत्तट्ठी, ण व वेला अभुंजणे ण जिण्णं सिं। और आलापक करते हैं। उसके पश्चात् उपशांत हो जाने पर ___ण पडिक्कमंति उवसम, णिरतीयारा णु पच्चाह॥ मूल का प्रायश्चित्त देते हैं और यदि उपशांत नहीं होता है तो तुम्हारे उपशांत हुए बिना साधु भिक्षाचर्या के लिए नहीं उसे गण से निकाल देते हैं। उठ रहे हैं। वह कहता है-या तो ये सब मुनि उपोसित हैं या ५७७०.एवं बारस मासे, दोसु तवो सेसए भवे छेदो। अभी भिक्षा की बेला नहीं हुई है। उसे दूसरा मासगुरु आता। परिहायमाण तद्दिवस तवो मूलं पडिक्कंते॥ है। साधु भोजन नहीं कर रहे हैं। वह कहता है-पूर्वभुक्त इस प्रकार बारह मास में भी वह उपशांत नहीं होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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