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________________ ५९८ बृहत्कल्पभाष्यम् तब दूसरा सोचता है-आचार्य मुझे परबुद्धि से देखते हैं, तथा अवसन्न में संक्रान्त होने पर पन्द्रह रात-दिन से मासिक अतः मुझे निवारित नहीं करते, इस पक्षराग के कारण वह का छेद-यह प्रायश्चित्त है। मुनि बाह्यभाव को प्राप्त हो जाता है अथवा कलह को बढ़ा ५७५५.सगणम्मि पंचराइंदियाई भिक्खुस्स तद्दिवस छेदो। देता है अथवा वह आचार्य को कहता है-आप मुझ एक को दस होति अहोरत्ता, गणि आयरिए य पण्णरस।। बाह्यरूप से देखते हैं। स्वगण में संक्रान्त भिक्षु के उसी दिन से प्रारंभ कर ५७५०.खर-फरुस-निट्टराई,अध सो भणिउं अभाणियव्वाई।। प्रतिदिन पांच रातदिन का छेद है। उपाध्याय के दस रातदिन निग्गमण कलुसहियए, सगणे अट्ठा परगणे वा॥ का छेद, और आचार्य के पन्द्रह रातदिन का छेद। खर, परुष और निष्ठुर वचन जो कहने योग्य नहीं है ५७५६.अण्णगणे भिक्खुस्सा, दसेव राइंदिया भवे छेदो। उनको कहकर वह कलुषित हृदय वाला मुनि अपने गण से पण्णरस अहोरत्ता, गणि आयरिए भवे वीसा॥ निर्गमन करता है। उसके स्वगण और परगण में आठ-आठ अन्य गण में संक्रान्त भिक्षु के दस रातदिन का छेद, स्पर्द्धक होते हैं-संघाटकों के साथ रहना होता है। उपाध्याय के पन्द्रह रातदिन का छेद और आचार्य के बीस ५७५१.उच्चं सरोस भणियं, हिंसग-मम्मवयणं खरं तं तू। रातदिन का छेद। अक्कोस णिरुवचारिं, तमसब्भं णिहरं होती॥ ५७५७.अड्डाइज्जा मासा, पक्खे अट्ठहिं मासा हवंति वीसं तू। सरोष उच्च स्वर में कुछ कहना हिंसक वचन है। पंच उ मासा पक्खे, अट्ठहिं चत्ता उ भिक्खुस्स॥ मर्मोद्घाटक वचन खर होता है, निरुपचारी आक्रोशवचन स्वगण में संक्रान्त भिक्षु के प्रतिदिन पंचकछेद से पक्ष में परुषवचन, है, असभ्य वचन निष्ठुरवचन कहलाता है। ढाई मास का छेद होता है। स्वगण में आठ स्पर्द्धक होते हैं, ५७५२.अट्ठट्ट अदमासा, मासा होतऽट्ठ अट्ठसु पयारो। उनमें एक-एक पक्ष तक संचरण करने से बीस मास का छेद वासासु असंचरणं, ण चेव इयरे वि पेसंति॥ होता है। परगण में संक्रान्त भिक्षु के प्रतिदिन दस के छेद से एक-एक स्पर्द्धक में आधे मास के क्रम से संचरण करने पक्ष में पांच मास का छेद आता है और आठ स्पर्द्धकों के पर आठ अर्द्धमास तथा परगण में एक-एक स्पर्द्धक में अध्वा । कारण सारे चालीस मास का छेद होता है। मास के क्रम से संचरण करने पर आठ अर्द्धमास होते हैं। ५७५८.पंच उ मासा पक्खे, अट्ठहिं मासा हवंति चत्ता उ। दोनों को मिलाने पर आठ मास हो जाते हैं। इन आठ महीनों अद्धऽट्ठ मास पक्खे, अट्ठहिं सद्धिं भवे गणिणो॥ में विहार होता है। वर्षाकाल में असंचरण होता है। वह मुनि उपाध्याय के स्वगण में दस के छेद से पक्ष में पांच जिस स्पर्द्धक में संक्रान्त है वे भी उसको उसके गण में नहीं मास और आठ पक्षों में चालीस मास का छेद होता है। भेजते। इन्हीं का परगण में संक्रान्त होने पर पन्द्रह दिन के छेद से ५७५३.सगणम्मि पंचराइंदियाई दस परगणे मणुण्णेसू। पक्ष में साढ़े सात मास और आठ पक्षों में साठ मास का अण्णेसु होइ पणरस, वीसा तु गयस्स ओसण्णे॥ छेद होता है। अपने गण के स्पर्द्धकों में संक्रान्त वह मुनि यदि उपशांत ५७५९.अट्ठ मास पक्खे, अट्ठहिं मासा हवंति सढिं तु। नहीं होता है तो उसे प्रत्येक दिन पांच रातदिन का छेद आता दस मासा पक्खेणं, अट्टहऽसीती उ आयरिए। है। परगण में मनोज्ञ अर्थात् सांभोगिक मुनियों में संक्रान्त हो आचार्य का स्वगण में संक्रान्त करने पर पन्द्रह दिन के तो वहां प्रतिदिन दस रातदिन का छेद आता है और अन्य क्रम से एक पक्ष में साढ़े सात मास और आठ पक्षों में साठ सांभोगिक में रहे तो प्रतिदिन पन्द्रह रातदिन का छेद आता मास का छेद होता है। परगण में संक्रान्त होने पर बीस दिन है। अवसन्न में जाने पर बीस रातदिन का छेद है। यह भिक्षु के क्रम से एक पक्ष में दस मास का छेद और आठ पक्षों में के प्रायश्चित्त का विवरण है। अस्सी मास का छेद होता है। ५७५४.एमेव य होइ गणी, दसदिवसादी उ भिण्णमासंतो। इसी प्रकार भिक्षु, उपाध्याय और आचार्य के अन्य पण्णरसादी तु गुरू, चतुसु वि ठाणेसु मासंतो।। सांभोगिक तथा अवसन्न में संक्रान्त होने पर इसी विधि से इसी प्रकार गणी-उपाध्याय अधिकरण कर परगण में छेद की संकलना करनी चाहिए। संक्रान्त हुआ है उसके लिए दस रात-दिन से प्रारंभ कर ५७६०.एसा विही उ निग्गए, सगणे चत्तारि मास उक्कोसा। भिन्नमास पर्यन्त छेद आता है। इसी प्रकार गुरु-आचार्य के चत्तारि परगणम्मि, तेण परं मूलं निच्छुभणं ।। चारों स्थानों स्वगण-परगण के सांभोगिक, अन्य सांभोगिक, यह विधि गच्छ से निर्गत मुनि की है। उत्कृष्टतः स्वगण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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