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बृहत्कल्पभाष्यम्
११४. वटवृक्ष एक बार एक मुनि उद्भ्रामक भिक्षा के लिए मूल गांव के पास वाले गांव में गया। पुनः लौटते समय ग्राम के बाह्य भाग में स्थित विशाल वटवृक्ष की शाखा से उसके सिर टकरा गया। खेद खिन्न हो मन में उस वट के प्रति प्रद्वेष जाग उठा। रात्री में स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हो गया। उपाश्रय से बाहर आ सीधा वटवृक्ष के पास पहुंचा। स्त्यानर्द्धि निद्रा के कारण अतिशय शक्तिसंपन्न उस साधु ने वटवृक्ष को उखाड़ कर उसकी शाखाओं को छिन्नभिन्न कर दिया। कुछ शाखाएं उठा उपाश्रय के द्वारमूल के पास रख अपने शयनीय स्थान पर सो गया। प्रतिक्रमण के पश्चात् गुरु के समक्ष स्वप्न बतला आलोचना की। सूर्योदय होने पर शाखाओं को देख गुरु ने समझ लिया इस साधु के स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हुआ है।
गा. ५०२२ वृ. पृ. १३४१
११६. निमितज्ञ आचार्य उज्जैनी नगरी में एक निमितज्ञ आचार्य थे। उसके दो मित्र थे। वे दोनों व्यापारी थे। वे जब भी कोई व्यापार करते आचार्य से पूछकर करते थे। क्रय-विक्रय क्या करना? जैसा वे बताते वैसा ही करते। ऐसे करते हुए वे दोनों धनी हो गए। एक दिन निमितज्ञ आचार्य का संसारपक्षीय भाणजा आया। उसने मामा महाराज से कहा-मुझे १००० रुपये की जरूरत है। उन्होंने अपने शिष्य के साथ मित्र के पास भेजा। वह गया और बोला १००० रुपये चाहिए। वह बोला-मैं इतने रुपये नहीं दे सकता, यहां कोई स्वर्ण बीट करने वाला पक्षी थोड़े ही है। मैं तो २० रुपये दे सकता हूं। वह मामा के पास गया और सारी बात कह दी। उसने अपने दूसरे मित्र के पास भेजा। उस मित्र ने उसकी खूब आवभगत की और उसको कहा-जितना चाहिए उतना ले जाओ। वह रुपये लेकर मामा के पास आया और मित्र की बहुत प्रशंसा की। दूसरे वर्ष व्यापार के निमित्त दोनों मित्र फिर आचार्य के पास आए। क्या खरीदें ? क्या बेचें? सारी बात पूछी? पहले मित्र के व्यवहार से आचार्य का मन खिन्न था। अतः उन्होंने उसे बताया-तुम्हारे पास जितना धन है उससे कपास, घी, गुड़ खरीदकर घर के अन्दर रख दो। उसने वैसा ही किया। दूसरे मित्र के व्यवहार से आचार्य बहुत प्रभावित थे। उसने उसे कहा-तुम सारा तृण, काष्ठ और धान्य खरीदकर नगर के बाहर रखवा दो। उसने वैसे ही किया। कुछ दिन बाद नगर में आग लग गई। पहले मित्र का सारा माल जल गया। दूसरे का माल बहुत मूल्य में बिका उसके खूब कमाई हुई। पहला मित्र आचार्य के पास आया और बोला-इस बार आपका निमित्त गलत हो गया। आचार्य ने कहा-मेरे पास क्या कोई निमित्त बताने वाला पक्षी है? उसे अपनी गलती का अहसास हुआ, उसने आचार्य से क्षमायाचना की।
गा. ५११४ वृ. पृ. १३६२
११७. वेदोपघात से मृत्यु
एक बार राजकुमार हेम इन्द्रमह के अवसर पर इन्द्र-स्थान में गया। वहां उसने नगर की पांच सौ रूपवती कुल-बालिकाओं को देखा और पूछा ये बालिकाएं क्यों आई हैं? क्या चाहती हैं ? सेवकों ने बताया-ये इन्द्र से सौभाग्य का वर चाहती हैं। राजकुमार ने कहा-इन्द्र ने वर रूप में मुझे भेजा है, इसलिए इन सबको अन्तःपुर में ले जाओ। सेवक उन्हें अन्तःपुर में ले गया। राजकुमार ने सबके साथ शादी कर ली। वह उनमें अत्यन्त आसक्त था। आसक्ति के कारण उसका सारा वीर्य निर्गलित हो गया, उससे वेद का उपघात हुआ और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया।
गा. ५१५३ १. पृ. १३७१
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