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________________ ६८४ -बृहत्कल्पभाष्यम् उसने मन ही मन विचार किया कि मैंने किसी से कुछ नहीं कहा, फिर इन लोगों ने मेरे मन की बात कैसे जानी? उसने गवेषणा की। एक-दूसरे से पूछते-पूछते अंत में बात कुब्जा पर आकर टिकी। राजा ने कुब्जा को बुलाकर उससे कारण पूछा। उसने राजा को यथार्थ बात बता दी। राजा उससे तुष्ट हुआ। गा. १७१ वृ. पृ. ५२ ५. काल और अकाल का विवेक एक मुनि कालिक श्रुत का स्वाध्याय कर रहा था। रात्रि का पहला प्रहर बीत गया। उसे इसका भान नहीं रहा। वह स्वाध्याय करता ही गया। एक सम्यक्दृष्टि देवता ने यह जाना। उसने सोचा-यह मुनि अकाल में स्वाध्याय कर रहा है। कोई मिथ्यादृष्टि देवता उसको छल न ले, इसलिए उसने छाछ बेचने वाले की विकुर्वणा की। 'छाछ ले लो, छाछ ले लो'-यह कहता हुआ वह उस मार्ग से निकला। वह बार-बार उस मुनि के उपाश्रय के पास आता जाता रहा। मुनि ने वे शब्द सुने। उसे ऐसा अनुभव हुआ मानो कानों पर कोई प्रहार कर रहा हो। मुनि बोला-कौन हो? अभी क्या छाछ बेचने का समय है? तब उसने कहा-मुनिवर ! क्या यह कालिक श्रुत का स्वाध्याय काल है? मुनि ने यह सुना और सोचा यह कालिक श्रुत का स्वाध्याय काल नहीं है? आधी रात बीत चुकी है। मुनि ने प्रायश्चित्त स्वरूप 'मिच्छामि दुक्कडं' का उच्चारण किया। देवता बोला-फिर ऐसा मत करना, अन्यथा तुम मिथ्यादृष्टि देवता से छले जाओगे। स्वाध्याय-काल में ही स्वाध्याय करो न कि अस्वाध्याय काल में। गा. १७१ वृ. पृ. ५३ ६. बधिर एक ग्राम में एक परिवार रहता था। उसके चार सदस्य थे। चारों ही बधिर थे। एक दिन उसका पुत्र हल लेकर खेत की ओर जा रहा था। रास्ते में एक आदमी ने उससे गांव का मार्ग पूछा। उसने सोचा, यह मुझसे बैल मांग रहा है। वह बोला ये जातिवान बैल मेरे हैं। तम कैसे मांग रहे हो? उसने कहा-मैं बैल नहीं मांग रहा ह मार्ग पूछ रहा हूं। वह बात को समझा नहीं और हल लेकर उसके पीछे दौड़ा। पथिक ने सोचा यह पागल है। मार्ग में उसकी पत्नी मिल गई जो भाता (भोजन) लेकर आ रही थी। उसे देख कर बोला-'यह आदमी मुझसे बैल मांग रहा था।' वह भी सुनने में असमर्थ थी। उसने सोचा कि मुझे कह रहे है कि भोजन में नमक नहीं है। वह बोली-भोजन तुम्हारी मां ने बनाया है।' वह घर गई और सास से कहा-'तुम्हारे बेटे ने कहा-भोजन में नमक नहीं है।' वह सूत कात रही थी, उसने सोचा मुझे कह रही है कि सूत मोटा कात रही हो। वह बोली सूत मोटा हो या खरदरा। तेरे लिए नहीं कात रही हूं, मेरे बेटे के लिए कात रही हूं। उसका श्वसुर बाहर तिल सुखा रहा था। उसने बहु को बात करते देखा तो सोचा, यह अपनी सास को कह रही है कि यह वृद्ध तिल खा रहा है। वह बोला-'तुम्हारी सौगंध मैंने एक भी तिल नहीं खाया।' गा. १७१ वृ. पृ. ५३ ७. अज्ञानी पुत्र एक गांव में एक छोटा परिवार रहता था। उसमें तीन सदस्य थे-माता-पिता और पुत्र। पिता का देहावसान हो गया। माता अपने पुत्र को लेकर अन्यत्र चली गई। पुत्र बड़ा हुआ। एक दिन मां से पूछा-मेरे पिता कहां है? उसने कहा-तेरे पिता का देहान्त हो गया। फिर पूछा-मां! पिताजी कौन सा कार्य करके आजीविका चलाते थे। वह बोली-दूसरों की सेवा करके। पुत्र बोला-मां! मैं भी सेवा करके आजीविका चलाऊंगा। मां बोली-बेटा ! तुम अभी बालक हो, तुम्हें अभी यह ज्ञात हो नहीं है कि सेवा कैसे करते हैं ? बालक बोला-मां! तुम बताओ सेवा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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