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सूक्त और सुभाषित
गुणसुट्ठियस्स वयणं, घयपरिसित्तु व्व पावओ भाइ । गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो ॥ (बृभा - २४५) - गुणों में सुस्थित मुनि का वचन घृत से सिंचित अग्नि की भांति देदीप्यमान होती है। गुणहीन मुनि का वचन शोभित नहीं होता, जैसे-तैलविहीन दीपक ।
को कल्लाणं निच्छइ !
(बृभा - २४७)
-कल्लाण कौन नहीं चाहता!
जो उत्तमेहिं पहओ मग्गो, सो दुग्गमो न सेसाणं ।
(बृभा - २४९) - जो मार्ग उत्तम पुरुषों द्वारा क्षुण्ण है, वह शेष व्यक्तियों के लिए दुर्गम नहीं होता ।
जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुंति अववाया । जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ॥ (बृभा- ३२२)
- जितने उत्सर्ग के नियम हैं, उतने ही हैं अपवाद के नियम । जितने अपवाद के नियम हैं, उतने ही हैं उत्सर्ग के नियम |
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अंबत्तणेण जीहाइ कूइया होइ खीरमुदगम्मि । हंसो मोत्तूण जलं, आपियइ पयं तह सुसीसो ॥ (बृभा-३४७) -हंस की जिह्वा अम्ल होती है। ज्यों ही दूध में हंस चोंच डालता है, जिह्वा की अम्लता के कारण दूध की कूचिका - गुच्छे बन जाते हैं। हंस उन्हें खा लेता है और पानी को छोड़ देता है। इसी प्रकार सुशिष्य गुणों को ग्रहण कर लेता है, दोषों को छोड़ देता है।
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परिशिष्ट २
मसगो व्व तुदं जच्चाइएहिं निच्छुब्भई कुसीसो वि । (बृभा- ३५०) - जो कुशिष्य जातिमद आदि से दूसरों को पीड़ित करता है वह मच्छर की भांति निष्काशित कर दिया जाता उड़ा दिया जाता है।
खीरमिव रायहंसा, जे घोट्टंति उ गुणे गुणसमिद्धा । दोसे वि य छडुंती, ते वसभा धीरपुरिस त्ति ।। (बृभा- ३६६) - जैसे गुणसमृद्ध शिष्य गुणों का आस्वादन करता है, और दोषों का परित्याग कर देता है, वह केवल दूध को ग्रहण करने वाले राजहंस की भांति शोभित होता है। वही वृषभ है, धीरपुरुष है।
अद्दागसमो साहू।
- साधु दर्पण की भांति होता है।
पावाणं जदकरणं, तदेव खलु मंगलं परमं ।
(बृभा-८१२)
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(बृभा- ८१४)
- पाप न करना ही परम मंगल है। एगेण कयमकज्जं, करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो । सायाबहुल परंपर, वोच्छेदो संजम तवाणं ॥ (बृभा- ९२८) - एक मुनि यदि अकार्य करता है तो उसके आधार पर दूसरे मुनि भी अकार्य में प्रवृत्त होते हैं। सातबहुल प्राणियों की इस परंपरा से संयम और तप का व्यवच्छेद हो जाता है। दंसण - चरणा मूढस्स नत्थि समया वा नत्थि सम्मं तु ।
(बृभा- ९३२)
- दर्शन और चारित्र से मूढ़ व्यक्ति में न समता होती है और न सम्यक्त्व |
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