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________________ पांचवां उद्देशक शेष अर्थात् जो अग्लान है, जो द्रव्य, क्षेत्र और काल-इन तीन प्रकार की आपदाओं से मुक्त है, वह यदि परिवासित रखता है तो उसके लिए प्रायश्चित्त की मार्गणा यह है। ६०२४.फासुगमफासुगे वा, अचित्त चित्ते परित्तऽणंते वा। असिणेह सिणेहगए, अणहाराऽऽहार लहु-गुरुगा॥ ___ वह यदि प्राशुक, अचित्त, परीत्त, अस्नेह और अनाहार को स्थापित करता है तो चतुर्लघु तथा अप्रासुक, सचित्त, अनन्त, स्नेहावगाढ़ और आहार को स्थापित करता है तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पारियासिएणं तेल्लेण वा घएण वा नवणीएण वा वसाए वा गायाई अब्भंगित्तए वा मक्खित्तए वा, नण्णत्थ आगाढेहिं रोगायंकेहिं॥ (सूत्र ३९) । ६२९ स्नेह के कारण मलिन हुए वस्त्र और शरीर को धोने पर या न धोने पर दोनों में दोष है। यदि न धोया जाए तो निशिभक्त और धोया जाए तो प्राणियों का उत्प्लावन होता है। उपकरण और शरीर की बकुशता होती है। फिर वही 'हेवाक' आदत हो जाती है। पैरों में धूली न लगे, इसलिए वह तलिका पहन लेता है। गात्र का उद्वर्तन आदि करने पर सूत्रार्थ का परिमंथ होता है। ६०२८.तदिवसमक्खणेण उ,दिट्ठा दोसा जहा उ मक्खिज्जा। अदाणेणुव्वाए, वाय अरुग कच्छु जयणाए॥ तद्दिवसानीत द्रव्य से म्रक्षण करने पर ये दोष दृष्ट हैं। अपवादपद में म्रक्षण की यह विधि है-मार्ग में अत्यंत थक गया हो, वायु से कमर जकड़ गई हो, ऊरु-व्रण हो गया हो, खाज हो गई हो यतनापूर्वक म्रक्षण करे। ६०२९.सन्नाईकयकज्जो, धुविउं मक्खेउ अच्छए अंतो। परिपीय गोमयाई, उव्वट्टण धोव्वणा जयणा।। संज्ञागमन, भिक्षाचर्यागमन तथा अन्यान्य बहिर्गमन के कार्य जिसने कर लिए हों उसे जितने शरीर का म्रक्षण करना है उतने मात्र शरीर को धोकर, फिर म्रक्षण करे। म्रक्षण कर फिर प्रतिश्रय के भीतर तब तक बैठा रहे जब तक वह शरीर तैलादिक म्रक्षण को पी न ले। फिर गोबर आदि से उद्वर्तन कर यतनापूर्वक उसका प्रक्षालन करे। ६०३०.जह कारणे तदिवसं, तु कप्पई तह भवेज्ज इयरं पि। आयरियवाहि वसभेहि पुच्छिए विज्ज संदेसो॥ जैसे कारण में तद्दिवस आनीत म्रक्षण कल्पता है तो परिवासित भी कल्पता है। आचार्य के कोई व्याधि हो गई। वृषभों ने वैद्य से पूछा। वैद्य ने कहा-शतपाक आदि तैल हो तो चिकित्सा की जा सकती है। ६०३१.सयपाग सहस्सं वा, सयसाहस्सं व हंस-मरुतेल्लं। दूराओ वि य असई, परिवासिज्जा जयं धीरे॥ शतपाक, सहस्रपाक, शतसहस्रपाक, हंसतैल, मरु तैल-ये दुर्लभ द्रव्य सबसे पहले तदैवसिक लाने चाहिए। प्राप्त न होने पर धीर गीतार्थ मुनि दूर से मंगा कर भी उनकी स्थापना करे। ६०३२.एयाणि मक्खणट्ठा, पियणट्ठा एव पतिदिणालंभे। पणहाणीए जइडं, चउगुरुपत्तो अदोसाओ।। ये शतपाक तैल आदि म्रक्षण के लिए तथा पान करने के लिए प्रतिदिन न मिलने पर पंचक परिहानि से चतुर्गुरु से भरकर तैल में पकाना, वह तैल। मरुतैल-मरुदेश में पर्वत से उत्पन्न (वृ. पृ. १५९१) ६०२५.ससिणेहो असिणेहो, दिज्जइ मक्खित्तु वा तगं देति। सव्वो वा णालिप्पइ, दुहतो वा मक्खणे सूया॥ आलेप के दो प्रकार हैं-सस्नेह और अस्नेह। यह आलेप दिया जाता है। अथवा व्रण का म्रक्षण कर पश्चात् आलेप दिया जाता है। सारा व्रण आलिप्त नहीं किया जाता। दो प्रकार से म्रक्षण की सूचा की गई है। व्रण भी म्रक्षित किया जाता है और आलेप भी म्रक्षण के लिए दिया जाता है। ६०२६.तदिवसमक्खणम्मि, लहुओ मासो उ होइ बोधव्वो। ___ आणाइणो विराहण, धूलि सरक्खे य तसपाणा॥ शिष्य ने पूछा-यदि परिवासित से म्रक्षण करना नहीं कल्पता तो क्या उसी दिन आनीत द्रव्य से म्रक्षण आदि करना कल्पेगा? आचार्य कहते हैं-यदि उसी दिन लाए हुए द्रव्य से म्रक्षण करता है तो लघुमास, आज्ञाभंग आदि दोष और विराधना होती है। म्रक्षित शरीर पर धूल, सचित्तरजें। लग जाती हैं। वस्त्र मलिन हो जाते हैं। उनको धोने पर संयमविराधना होती है। स्नेह के गंध से त्रस प्राणियों की विराधना होती है। ६०२७.धुवणा-ऽधुवणे दोसा, निसिभत्तं उप्पिलावणं चेव। बउसत्त समुइ तलिया, उव्वट्टणमाइ पलिमंथो॥ १. शतपाक तैल वह होता है जो सौ औषधियों में पकाया जाता है या एक ही औषधी को सौ बार पकाया जाता है। इसी प्रकार सहस्रपाक और शतसहस्रपाक तैल को जानना चाहिए। हंसपाक अर्थात् हंसको औषध परिवार तैल। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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