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________________ ६९८ = बृहत्कल्पभाष्यम् आकाश में स्थिर रखने लगा। इस आश्चर्य से लोग उस परिव्राजक की पूजा करने लगे। एक बार राजा ने पूछा-भगवन्! क्या यह आपका विद्यातिशय है या तप का अतिशय है? उसने कहा-यह विद्या का अतिशय है। राजा ने पूछा-आपने यह विद्या किससे प्राप्त की? परिव्राजक बोला-हिमालय पर्वत पर एक फलाहारी ऋषि से विद्या प्राप्त की। विद्यागुरु के अपलाप करने के कारण इतना कहते ही आकाशस्थित त्रिदंड भूमि पर गिर गया। गा. ७८६ वृ. पृ. २४७ ४०.आम्र फल एक दिन आचार्य शिष्यों को वाचना दे रहे थे। उन्होंने परिणामक, अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्यों की परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहा-शिष्यो! मुझे आम की आवश्यकता है। जो परिणामक शिष्य था, उसने आचार्य से निवेदन किया-भंते! कैसा आम लाऊं? सचेतन या अचेतन? भावित (लवणादि से) या अभावित ? बड़े या छोटे? छिन्न (टुकड़े किए) या अछिन्न? कितनी संख्या में? आचार्य ने कहा-आम तो पहले से ही प्राप्त हैं। अभी अपेक्षा नहीं है, कभी अपेक्षा होगी तो बता दूंगा। मैंने तो तुम्हारी परीक्षा के लिए ऐसा कहा था। जो अपरिणामक शिष्य था, वह बोला-आचार्यवर! क्या आपको पित्त का प्रकोप हो गया है, जो आप असंबद्ध प्रलाप कर रहे हैं? आज आपने मेरे सामने कहा, वह कह दिया, दूसरी बार ऐसे सावध वचन मत कहना। दूसरा कोई सुन न ले। हमें ऐसा कहना नहीं कल्पता। जो अतिपरिणामक शिष्य था. वह बोला-आचार्यश्री! यदि आपको आम की आवश्यकता है, तो मैं अभी आम ले आऊंगा। अभी आम का मौसम है। आम तरुण हैं फिर वे कठोर हो जाएंगे। मुझे भी आम प्रिय है परन्तु आपके भय से कह नहीं सका। यदि आम अपने लिए ग्रहण करने योग्य है, तो फिर इतने दिन क्यों नहीं कहा? पहले ही कह देते। क्या बिजौरा आदि दूसरे फल ले आऊं? ___ आचार्य ने अतिपरिणामक और अपरिणामक शिष्यों की बात सुनकर कहा-तुम लोगों ने मेरा अभिप्राय नहीं समझा। मैंने बात पूरी भी नहीं की और तुम अनर्गल बोलने लग गए। मैंने कांजी अथवा लवण से भावित, टुकड़े किए हुए अथवा शाक रूप में पकाए हुए आम मंगाए थे, अपरिणत नहीं। गा. ७९८-८०१ वृ. पृ. २५१ ४१. राजाज्ञा एक राजा की छह व्यक्तियों ने बहुत सेवा की। राजा उनकी सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ। खुश होकर राजा ने उन्हें नगर में स्वतंत्रता से विचरण करने की अनुमति दे दी। नगर में घोषणा करवा दी कि जो इन व्यक्तियों को पीड़ित करेगा या मारेगा वह उग्रदंड का भागी बनेगा। जन समूह से उनका परिचय हुआ। लोगों ने देखा कि वे न रूपवान् है, न वैभव सम्पन्न और न ही उनके पास अच्छे वस्त्र तथा आभूषण हैं। भद्र व्यक्तियों ने राजाज्ञा की विधिपूर्वक अनुपालना की। लेकिन जो उदंड थे, उन्होंने राजाज्ञा की अवहेलना की जिसके कारण उन्हें दंड भोगना पड़ा। गा. ९२६-९२७ वृ. पृ. २९३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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