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________________ शश बृहत्कल्पभाष्यम् कनक-बाण विशेष तथा वेधक-परशरीर वेधक शस्त्र बनाता अथवा बाल आदि की अपेक्षा से संक्षेप में वीर्य तीन है और दूसरा आरिका, सूची आदि बनाता है। (जो कुठार, प्रकार का होता है-बालवीर्य, बालपंडितवीर्य और पंडितभाला, बाण बनाने वाला तीव्र कर्मबंध करता है और जो वीर्य। इन तीनों में कर्मबंधविशेष होता है। पंडितवीर्य वाला नखच्छेदनक, आरिका, सूची आदि बनाता है वह स्वल्प व्यक्ति बंधी, अबंधी दोनों होता है। कर्मबंध करता है।) ३९५०.तम्हा ण सव्वजीवा, उ बंधगा व बंधणा तुल्ला। ३९४४.सूईसुं पि विसेसो, कारणसूईसु सिव्वणीसुं च। अधिकिच्च संपरागं, इरियावहिबंधगा तुल्ला॥ संगामिय परियाणिय, एमेव य जाणमादीसु॥ इस प्रकार सभी जीव बंधक नहीं हैं और जो बंधक हैं वे सूची में भी विशेष है-कारणसूची और सीवनसूची। इसी भी समानरूप से बंधक नहीं हैं क्योंकि उनका सांपरायप्रकार यान आदि हैं-सांग्रामिक यान और पारियानिकर कषायप्रत्ययिक कर्म का बंध तुल्य नहीं होता। जो ऐर्यायान। पथिक-योगमात्र प्रत्यय से होने वाला बंध की अपेक्षा से सभी ३९४५.कारग-करेंतगाणं, अधिकरणं चेव तं तहा कुणति। तुल्य होते हैं, क्योंकि उनके सातवेदनीय कर्म का बंध दो जह परिणामविसेसो, संजायति तेसु वत्थूसु॥ समय की स्थितिवाला होता है। सभी के यह तुल्य होता है। उन उन वस्तुओं के निर्माण में वैसे-वैसे परिणाम विशेष ३९५१.संजमहेऊ जोगो, पउज्जमाणो अदोसवं होइ। उत्पन्न होते हैं। उन वस्तुओं को कराने वाला और करने जह आरोग्गणिमित्तं, गंडच्छेदो व विज्जस्स। वाला-दोनों अधिकरण के भागी हैं। अतः परिणामों की संयमहेतुक जो व्यापार होता है वह अदोषवान् होता है। विचित्रता से ही कर्मबंध विशेष होता है। जैसे वैद्य रोगी के आरोग्य के निमित्त व्रण आदि का छेदन ३९४६.संजोययते कूडं, हलं पडं ओसहे य अण्णोण्णे। करता है, वह अदोषवान् है। भोयणविहिं च अण्णे, तत्थ वि णाणत्तगं बहुहा॥ ३९५२.भिन्नम्मि माउगंतम्मि केइ अहिकरण गहिय पडिसेहो। कोई शिकारी मृगों को फंसाने के लिए कूट (मृग को एवं खु भिज्जमाणं, अलक्खणं होइ उद्धं च। बांधने का यंत्र) का संयोजन करता है, कोई कृषक हल को वस्त्र की किनारी को फाड़ देने पर, यदि स्तेन उसे चुरा जुए से योजित करता है, कोई एक वस्त्र को दूसरे वस्त्र के लेते हैं तो भी कलह नहीं होता, क्योंकि वह धारण करने साथ सीकर जोड़ता है, कोई वैद्य औषधियों का संयोजन योग्य नहीं होता। ऐसा जो आचार्य कहते हैं उनका प्रतिषेध करता है, कोई भोजन विधि को परस्पर संयोजित करता है। करना चाहिए कि इस प्रकार वस्त्र का छेदन करने पर वह इन सबमें कर्मबंध का बहधा नानात्व होता है। वस्त्र अलक्षणवाला हो जायेगा। तब कोई कहता है उसे ऊर्ध्व ३९४७.निव्वत्तणा य संजोयणा य सगडाइएसु अ भवंति। भिन्न किया जाए। (व्याख्या आगे) आसज्जुत्तरकरणं, निव्वत्ती मूलकरणं तु॥ ३९५३.उभओ पासिं छिज्जउ, मा दसिया उक्किरिज्ज एगत्तो। निर्वर्तना और संयोजना अधिकरण ये दोनों शकट आदि अहिकरणं णेवं खलु, उद्धो फालो व मज्झम्मि। में होते हैं। इनमें प्रथमतः निर्वर्तना है मूलकरण और कोई कहता है-वस्त्र की दोनों ओर की किनारी निकाल उत्तरकरण के आधार पर संयोजना है। देनी चाहिए। कारण पूछने पर कहता है-एक ओर की ३९४८. देहबलं खलु विरियं बलसरिसो चेव होति परिणामो। किनारी का छेदन करने पर उस कपड़े का अपहर्ता छेदी हुई ___आसज्ज देहविरियं, छट्ठाणगया तु सव्वत्तो॥ किनारी का उत्किरण कर बड़े मूल्य में बेच सकता है। दोनों देह की शक्ति वीर्य कहलाती है। बल के समान होता है ओर की किनारी छिन्न कर देने पर अधिकरण नहीं होता। परिणाम। देहवीर्य के आधार पर ही समस्त संहननों में प्राणी तथा उस वस्त्र को मध्य से दो भागों में फाड़ देना चाहिए। छहस्थानगत होते हैं। इन सभी प्राणियों के अपने देहबल की ३९५४.भन्नइ दुहतो छिन्ने, उभतो दसियाई किण्ण जायंति। विचित्रता से परिणामों की तरतमता से कर्मबंध भी विचित्र कुप्पासए करेंति व, अदसाणि व किं ण भुंजंति॥ होता है। इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं यदि दोनों ओर से ३९४९.अहवा बालादीयं तिविहं विरियं समासतो होति। किनारी का छेदन कर दिया जाए तो भी दोनों ओर से बंधविसेसो तिण्ह वि, पंडिय बंधी अबंधी य॥ किनारी का उत्किरण कर दिया जाएगा। वे उसकी कंचुकी १. कारणसूची-अपराधी के नखों में जो कूटी जाती है। यान के निर्माण से महान् कर्मबंध होता है। २. युद्धस्थली में योद्धा द्वारा प्रयुक्त यान। कारणसूची और सांग्रामिक ३. यात्रा के लिए निर्मित यान। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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