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बृहत्कल्पभाष्यम्
६१६ भी उष्ण और उष्ण द्रव्य भी शीत हो जाते हैं। यह आगंतुक परिणाम है। ५९०८.तावोदगं तु उसिणं, सीया मीसा य सेसगा आवो।
एमेव सेसगाई, रूवीदव्वाइं सव्वाइं॥ तापोदक उष्ण होता है। शेष अप्काय द्रव्य शीत तथा शीत-उष्ण उभयस्वभाव वाले होते हैं। इसी प्रकार शेष सभी रूपी द्रव्य (अप्कायविरहित) उष्ण, शीत या शीतोष्ण होते हैं। ५९०९.एएण सुत्त न गतं, जो कायगताण होइ परिणामो।
सीतोदमिस्सियम्मि उ, दव्वम्मि उ मग्गणा होति॥ जो यह कायगत द्रव्यों का परिणाम कहा गया है यह कोई सूत्र का विषय नहीं है। सूत्र में शीतोदकमिश्रित द्रव्य का अधिकार है। वहां यह मार्गणा होती है। ५९१०.दुहतो थोवं एक्वेक्कएण अंतम्मि दोहि वी बहुगं। ___ भावुगमभावुगं पि य, फासादिविसेसितं जाणे॥
पूर्वगृहीत द्रव्य में यदि शीतोदक गिरता है तो यहां चतुर्भंगी होती है
१. स्तोक में स्तोक गिरा। २. स्तोक में बहुत गिरा। ३. बहुत में स्तोक गिरा। ४. दोनों बहुत अर्थात् बहुत में बहुत गिरा।
जो द्रव्य गिरता है या जहां गिरता है वह विशेष स्पर्श आदि से भावुक या अभावुक होता है। ५९११.चरमे विगिंचियव्वं,
__दोसु तु मज्झिल्ल पडिए भयणा उ। खिप्पं विविचियव्वं,
मायविमुक्केण समणेणं॥ चरम अर्थात् शीत में शीत गिरा, स्तोक में स्तोक या बहुक में बहुक-तो शीघ्र परिष्ठापन कर देना चाहिए। दोनों मध्यम भंगों-उष्ण में शीत गिरा और शीत में उष्ण गिरा-इन दोनों में परिष्ठापन की भजना है। उष्ण में शीत गिरा उसका शीघ्र परिष्ठापना कर देना चाहिए। श्रमण माया से मुक्त होकर सहजभाव से वैसा करे। ५९१२.थोवं बहुम्मि पडियं, उसिणे सीतोदगं ण उज्झंती।
हंदि हु जाव विगिंचति, भावेज्जति ताव तं तेणं॥ बहुक में स्तोक गिरा-उष्ण पानी बहुत है और उसमें स्तोक शीतोदक गिरा तब उसका परित्याग नहीं करते। जब तक वे उसका परिष्ठापन करते हैं तब तक वह शीतोदक उस उष्णोदक से परिणत हो जाता है।
५९१३.जं पुण दुहतो उसिणं, सममतिरेगं व तक्खणा चेव।
मज्झिल्लभंगएसु, चिरं पि चिट्ठे बहुं छूढं। जो दोनों प्रकार से उष्ण हो-उष्ण में उष्ण गिरा। दोनों तुल्य हैं। ठीक हैं। दोनों में एक अधिकतर हो तो तत्क्षण सचित्तभाव का अपहार नहीं होता। जो दो मध्यम भंग हैं-उष्ण में शीत और शीत में उष्ण-यदि इनमें स्तोक में बहुत क्षिप्त है तो वह चिरकाल तक सचित्त ही रहेगा। उसका भी परिष्ठापन कर देना चाहिए। ५९१४.वण्ण-रस-गंध-फासा, जह दव्वे जम्मि उक्कडा होति।
तह तह चिरं न चिट्ठइ, असुभेसु सुभेसु कालेणं॥ जिस द्रव्य में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श उत्कट होते हैं, उस द्रव्य के साथ मिश्रित उदक चिरकाल तक सचित्त नहीं रहता। जो अशुभ वर्ण आदि उत्कट हैं तो क्षिप्र परिणमन हो जाता है और यदि शुभ वर्ण आदि उत्कट हैं तो काल से परिणमन होता है। ५९१५.जो चंदणे कडुरसो, संसट्ठजले य दूसणा जा तु।
सा खलु दगस्स सत्थं, फासो उ उवग्गहं कुणति॥ तंदुलोदक चन्दन के साथ मिश्रित हो गया। चंदन का कटुक रस तंदुलोदक का शस्त्र होता है। किन्तु चन्दन का स्पर्श शीतल होने के कारण जल का उपग्रह करता है, इसलिए वह चिरकाल से परिणत होता है। इसी प्रकार संसृष्टजल की जो दूषणा अर्थात् अम्लरसता है वह उदक का शस्त्र है, किन्तु उसका स्पर्श शीतल होने के कारण वह उसका उपग्रह करता है, वह चिरकाल के बाद परिणत होता है। ५९१६.घयकिट्ट-विस्सगंधा, दगसत्थं मधुर-सीतलं ण घतं।
कालंतरमुप्पण्णा, अंबिलया चाउलोदस्स॥ घृतकिट्ट तथा कच्चे मांस की गंध ये दोनों उदक के शस्त्र हैं। जो रस से मधुर और स्पर्श से शीतल है वह उदक का उपग्रह करता है अतः चिरकाल से परिणत होता है। चाउलोदक में कुक्कुसों के द्वारा कालांतर में उत्पन्न अम्लता भी उदक का शस्त्र होती है। ५९१७.अब्बुक्कंते जति चाउलोदए छुब्भते जलं अण्णं।
दोण्णि वि चिरपरिणामा, भवंति एमेव सेसा वि॥ अव्युत्क्रान्त-अपरिणत चाउलोदक में दूसरा सचित्त जल डाला जाता है तो दोनों उदक चिरकाल से परिणत होते हैं। इसी प्रकार शेष भी। जैसे-संसृष्टपानक, फलपानक आदि में भी यदि सचित्त पानी डाला जाता है तो वे भी चिरकाल से परिणत होते हैं।
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