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पांचवां उद्देशक =
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५९१८.थंडिल्लस्स अलंभे, अद्धाणोम असिवे गिलाणे वा।
सुन्दा अविविंचंता, आउट्टिय गिण्हमाणा वा॥ स्थंडिल न मिलने पर, अध्वा, दुर्भिक्ष, अशिव, ग्लानत्व आदि कारणों में अपरिणत पानक की परिष्ठापना न करते हुए तथा जानते हुए भी अपरिणत पानक को लेते हुए भी शुद्ध हैं।
मेहुणपडिसेवणा-पदं
निग्गंथीए राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अण्णयरे पसुजातीए वा पक्खिजातीए वा अण्णयरं इंदियजायं परामुसेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, हत्थकम्मपडिसेवणपत्ता आवज्जइ मासियं अणुग्घाइयं॥
(सूत्र १३)
निग्गंथीए य राओ वा वियाले वा उच्चारं वा पासवणं वा विगिंचमाणीए वा विसोहेमाणीए वा अण्णयरे पसुजातीए वा पक्खिजातीए वा अण्णयरंसि सोयंसि
ओगाहेज्जा, तं च निग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवज्जइ चाउम्मासियं अणुग्घाइयं॥
(सूत्र १४) ५९१९.पढमिल्लुग-ततियाणं,
चरितो अत्थो वताण रक्खट्ठा। मेहुणरक्खट्ठा पुण,
इंदिय सोए य दो सुत्ता॥ पूर्वसूत्र में पहले और तीसरे महाव्रत की रक्षा के लिए अर्थ-उपाय बताए गए हैं। प्रस्तुत दो सूत्रों में मैथुनव्रत की रक्षा के लिए इन्द्रिय विषयक तथा श्रोतविषयक चर्चा है। ५९२०.वानर छगला हरिणा, सुणगादीया य पसुगणा होति।
बरहिण चासा हंसा, कुक्कुडग-सुगादिणो पक्खी॥ वानर, छगल, हरिण, शुनक आदि पशुगण होते हैं। मयूर, चास, हंस, कुक्कुट, शुक आदि पक्षी होते हैं।
५९२१.जहियं तु अणाययणा, पासवणुच्चार तहिं पडिक्कुटुं।
लहुगो य होइ मासो, आणादि सती कुलघरे वा। जहां ये पशु, पक्षी होते हैं वह अनायतन कहलाता है। वहां आर्याओं का अवस्थान, प्रस्रवण और उच्चार आदि के लिए जाना प्रतिकुष्ट है, निषिद्ध है। यदि वहां जाती हैं तो लधुमास तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। वहां भुक्तभोगिनी के स्मृति उभरती है और स्वजन पुनः उन्हें अपने घर ले जाना चाहते हैं। ५९२२.भुत्ता-ऽभुत्तविभासा, तस्सेवी काति कुलघरे आसि।
बंधव तप्पक्खी वा, दट्ठण लयंति लज्जाए। जो भुक्तभोगिनी होती है, उसके स्मृति होती है और जो अभुक्तभोगिनी होती है उसके कौतुक होता है। वह जब अपने कुलघर में थी तब पशु-पक्षी गण के साथ प्रतिसेवना करती थी। उनको देखकर वह प्रतिगमन कर सकती है। अथवा उसके बन्धु वैसे अनायतन में रहने वाली साध्वी को अपने घर ले जाते हैं। ५९२३.आलिंगणादिगा वा, अणिय-मादीसु वा निसेविज्जा।
एरिसगाण पवेसो, ण होति अंतेपुरेसुं पि॥ वे पशु उस आर्यिका का आलिंगन करते हैं, वह भी उनका आलिंगन करती है। वे वानर आदि स्वभावतः अनिभृत-कन्दर्पबहुल और मायावी होते हैं। वह आर्यिका उनसे क्रीड़ा करती है। ऐसे पशु-पक्षियों का प्रवेश अन्तःपुर में भी नहीं होता। ५९२४.कारणे गमणे वितहिं, विविंचमाणीए आगतो लिहेज्जा।
गुरुगो य होति मासो, आणाति सती तु स च्चेव॥ कारणवश वैसे अनायतन में रहने पर उच्चारभूमी तथा प्रस्रवणभूमी में वह आर्या परिष्ठापन के लिए जाती है तब वानर आदि आकर उसका आलिंगन करे और वह आर्या उसके स्पर्श को मन से चाहे तो उसे गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा पूर्वोक्त स्मृति आदि दोष होते हैं। ५९२५.वंदेण दंडहत्था, निग्गंतुं आयरंति पडिचरणं।
पविसंते वारिति य, दिवा वि ण उ काइयं एक्का।। आर्यायें वृन्द-समूहरूप में हाथ में दंड लेकर बाहर निकलें और कायिकी आदि करे। वानरों की दंड से ताड़ना करे और प्रतिश्रय में उनके प्रवेश को रोके। दिन में भी कायिकीभूमी में एकाकिनी न जाए। ५९२६.एवं तु इंदिएहिं, सोते लहुगा य परिणए गुरुगा।
बितियपद कारणम्मि, इंदिय सोए य आगाढे॥ इस प्रकार इन्द्रियसूत्र में प्रायश्चित्त विधि बताई है। जहां
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