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=बृहत्कल्पभाष्यम् से अन्य (पृथक्) है, इसलिए वह नहीं जाती गमन ६३६०.चउहिं ठिता छहिं अठिता, नहीं करती।
पढमा बितिया ठिता दसविहम्मि। ६३५४.ठाण-द्विइणाणतं, गति-गमणाणं च अत्थतो णत्थि। वहमाणा णिव्विसगा, वंजणणाणत्तं पुण, जहेव वयणस्स वायातो॥
जेहि वह ते उ णिव्विट्ठा। स्थान और स्थिति तथा गति और गमन में अर्थ की पहली कल्पस्थिति चार स्थानों में स्थित और छह स्थानों अपेक्षा से नानात्व नहीं है। व्यंजन का नानात्व है। जैसे में अस्थित है। दूसरी कल्पस्थिति दस स्थानों में स्थित होती वचन और वाणी का परस्पर अर्थ से कोई भेद नहीं है, है। निर्विशमान का अर्थ है-परिहारविशुद्धिक तप वहन करने शब्दतः भेद है।
वाला, निर्विष्टकल्प का अर्थ है-जिस साधक ने पारिहारिक६३५५.अहवा ज एस कप्पो, पलंबमादि बहुधा समक्खातो। तप वहन कर लिया है।
छट्ठाणा तस्स ठिई, ठिति त्ति मेर त्ति एगट्ठा॥ ६३६१.सिज्जायरपिंडे या, चाउज्जामे य पुरिसजेटे य। अथवा जो यह प्रलंब आदि अनेक प्रकार का कल्प कहा कितिकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा॥ गया है, उसकी छह प्रकार की स्थिति होती है। स्थिति और ये चार अवस्थित कल्प हैं-शय्यातरपिंड, चतुर्याम धर्म, मर्यादा एकार्थक माने गए हैं।
पुरुषज्येष्ठधर्म, कृतिकर्मकरण। ६३५६.पतिट्ठा ठावणा ठाणं, ववत्था संठिती ठिती। ६३६२.आचेलक्कद्देसिय, सपडिक्कमणे य रायपिंडे य।
__अवट्ठाणं अवत्था य, एकट्ठा चिट्ठणाऽऽति य॥ मासं पज्जोसवणा, छऽप्पेतऽणवट्ठिता कप्पा॥
प्रतिष्ठा, स्थापना, स्थान, व्यवस्था, संस्थिति, ये छह अनवस्थित कल्प हैं-आचेलक्य, औद्देशिक, स्थिति, अवस्थान, अवस्था ये सारे एकार्थक पद हैं। सप्रतिक्रमणधर्म, राजपिंड, मासकल्प, पर्युषणाकल्प। खड़े होना, बैठना तथा सोना-ये तीनों स्थिति के ही ६३६३.दसठाणठितो कप्पो, विशेषरूप हैं।
पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। ६३५७.सामाइए य छेदे, निव्विसमाणे तहेव निविट्ठे। एसो धुतरत कप्पो, जिणकप्पे थेरेसु य, छव्विह कप्पद्विती होति।
दसठाणपतिहितो होति॥ कल्पस्थिति के छह प्रकार हैं
पूर्व-पश्चिम अर्थात् प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन १. सामायिकसंयत कल्पस्थिति।
में छेदोपस्थापनीय साधुओं के दसस्थानस्थितकल्प था। यह २. छेदोपस्थापनीयसंयत कल्पस्थिति।
धुतरजाकल्प दसस्थान में प्रतिष्ठित होता है। ३. निर्विशमान कल्पस्थिति।
६३६४.आचेलक्कुइसिय, सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे। ४. निर्विष्टकाय कल्पस्थिति।
वत जेट्ठ पडिक्कमणे, मासं-पज्जोसवणकप्पे॥ ५. जिनकल्प कल्पस्थिति।
दस स्थान ये हैं६. स्थविर कल्पस्थिति।
१. आचेलक्य ६. व्रत ६३५८.कतिठाण ठितो कप्पो, कतिठाणेहिं अद्वितो। २. औद्देशिक ७. पुरुषज्येष्ठ धर्म
वुत्तो धूतरजो कप्पो, कतिठाणपतिट्टितो॥ ३. शय्यातरपिंड ८. प्रतिक्रमण सामायिक साधुओं का कल्प-आचार जो पाप का ४. राजपिंड ९. मासकल्प अपनयन करने वाला है, वह कितने स्थानों में स्थित, कितने ५. कृतिकर्म १०. पर्युषणाकल्प। स्थानों में अस्थित और कितने स्थानों में प्रतिष्ठित कहा ६३६५.दुविहो होति अचेलो, संताचेलो असंतचेलो य। गया है?
तित्थगर असंतचेला, संताचेला भवे सेसा॥ ६३५९.चउठाणठिओ कप्पो, छहिं ठाणेहिं अट्ठिओ। अचेल दो प्रकार का होता है-सदचेल और असदचेल।
___ एसो धूयरय कप्पो, दसट्ठाणपतिट्ठिओ॥ तीर्थंकर असदचेल होते हैं। शेष सभी साधु सदचेल होते हैं।
कल्प चार स्थानों में स्थित और छह स्थानों में अस्थित (जघन्यतः रजोहरण, मुखवस्त्रिका रखते हैं।) है। इस प्रकार यह धुतरज वाला सामायिकसंयतकल्प दस ६३६६.सीसावेढियपुत्तं, णदिउत्तरणम्मि नग्गयं बेंति। स्थान में प्रतिष्ठित है-कुछ स्थानों में स्थित और कुछ स्थानों
जुण्णेहि णग्गिया मी, तुर सालिय! देहि मे पोत्तिं ।। में अस्थित।
नदी में उतरते समय सिर पर वस्त्र बांधा जाता है। उस
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