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________________ चौथा उद्देशक = ५६३ वाचनाचार्य को अर्पित नहीं करता तब तक वह उसी का आभाव्य होता है। ५४५२.पंचण्हं एगयरे, उग्गहवज्जं तु लभति सच्चित्तं। आपुच्छ अट्ठ पक्खे, इत्थीसत्थेण संविग्गो॥ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदक-इन पांचों में से कोई एक संयतियों को ले जाता है। वहां परक्षेत्रावग्रह को छोड़कर जो सचित्त प्राप्त होता है, वह उसी का होता है। जो निर्ग्रन्थी ज्ञान के लिए जाती है, वह आठ पक्षों को पूछती है। वह आचार्य, उपाध्याय, वृषभ तथा गच्छ को और संयती वर्ग में प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिका, अभिषेका तथा शेष साध्वी वर्ग-इन सबको-एक-एक पक्ष तक पूछती है। वे प्रस्थित साध्वियां स्त्रीवर्ग के साथ तथा संविग्न मुनि को साथ लेकर जाती हैं। उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। (सूत्र १७) आयरिय-उवज्झाए य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं अनिक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ आयरिय-उवज्झायस्स आयरियउवज्झायत्तं निक्खिवित्ता अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं उपसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। (सूत्र १८) अण्ण भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म इच्छेज्जा संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, नो से कप्पइ अणापुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेइयं वा अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। ते य से वियरेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, ते य से नो वियरेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। जत्थुत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए; जत्थुत्तरियं धम्मविणयं नो लभेज्जा, एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥ (सूत्र १९) ५४५०.एमेव गणावच्छे, गणि-आयरिए वि होइ एमेव। __ नवरं पुण नाणत्तं, ते नियमा हुंति वत्ता उ॥ भिक्षु की भांति गणावच्छेदिक की तथा उपाध्याय और आचार्य की भी अन्यगण में जाने की यही विधि है। यह विशेष है कि गणावच्छेदिक आदि नियमतः व्यक्त होते हैं। ५४५१.एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। नाणट्ठ जो उ नेई, सच्चित्त ण अप्पिणे जाव।। यही विधि नियमतः निर्ग्रन्थियों की जाननी चाहिए। जो आर्यिकाओं को ज्ञान के लिए ले जाता है, उसे जो सचित्त आदि का लाभ होता है, उस लाभ को जब तक वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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