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________________ कथा परिशिष्ट = २४. वानर कामिक सरोवर में तट पर एक विशाल काय अशोक वृक्ष था। उस वृक्ष की विशेषता थी कि उस वृक्ष से जो भी सरोवर में छलांग लगाता, उसका रूप परिवर्तित हो जाता था। तिर्यंच मनुष्य के रूप में बदल जाता और मनुष्य देव बन जाता। दूसरी बार छलांग लगाने पर वह अपनी मूल स्थिति को प्राप्त हो जाता। एक बार एक वानर युगल वहां पानी पीने आया हुआ था। उसने भी यह बात सुनी लेकिन अधूरी बात सुनी। दोनों ने परस्पर चिंतन कर सरोवर में छलांग लगा दी। गिरते ही दोनों सुन्दर मानव युगल बन गए। वानर के मन में लोभ जाग गया। उसने सोचा-दूसरी बार छलांग लगाऊंगा तो देव बन जाऊंगा। पत्नी के रोकने पर भी वह अपने लोभ का संवरण नहीं कर सका और कूद पड़ा। परिणाम यह आया वह पुनः बन्दर बन गया। इधर बंदरी को रूपवती स्त्री देखकर राजपुरुष पकड़कर ले गए। वह राजा की पत्नी बन गई। उस बंदर को मदारी ले गया। वह उसे खेल सिखाने लगा। एक दिन घूमता हुआ वह उसी नगर में आया। मदारी ने राजा के सामने वानर के करतब दिखाए। वानर ने रानी को देखा और पूर्व प्रेम जागृत हो गया। रानी ने भी बंदर को देखा और वह बोली-वानर! अब जिस स्थिति में हो, उसी का सम्यक् रूप से पालन करो। गा. २९५ वृ. पृ. ८९ २५. खीर एक जुलाहे की पत्नी ने खीर बनाने के लिए दूध को गर्म किया। जैसे-जैसे उबाल आता वैसे-वैसे वह दूध में अन्न डालती गई। मन में यही कल्पना करती रही कि यह खीर ही बनेगी। ऐसा चिंतन करती हुई उसने चवला, तंदुल, मूंग, तिल आदि अनेक प्रकार के धान्य उसमें डाल दिए। सारी वस्तुएं भी नष्ट हो गई और खीर भी नहीं बनी। गा. २९६ वृ. पृ. ९० २६. माला एक आभीरी नगर में अपनी सखी के पास गई। (वह वणिक् की पत्नी थी) वह हार पिरो रही थी। उसने कहा लाओ, मैं पिरो देती हूं। उसने उसे दे दिया। आभीरी ने कभी हार नहीं पिरोया था। अज्ञानतावश उसने हार को व्यवस्थित नहीं पिरोया, वणिक् पत्नि क्रोधित होकर बोली-दुष्टे! तुमने मेरे हार का विनाश कर दिया। यह ठीक नहीं किया। गा. २९६ वृ. पृ. ९० २७. मुद्गशैल एक बार मुद्गशैल और पुष्करावर्त मेघ के परस्पर विवाद हो गया। मुद्गशैल बोला-हे पुष्करावर्त! तुम तिल मात्र भी मुझे खंडित नहीं कर सकते। यदि तिल मात्र भी खंडित करो तो मैं तुम्हें सही रूप में पुष्कपरावर्त मेघ मानूंगा। वह बोला अहंकार मत करो, तुम मेरी एक धार को भी सहन कर सकोगे तो मैं तुम्हें मुद्गशैल मानूंगा। ऐसा कहकर वह मुष्टि प्रमाण धारा से बरसने लगा। लगातार सात दिन-रात तक बरसता रहा। फिर उसने सोचा कि अब तो मुद्गशैल नष्ट हो गया होगा लेकिन निरन्तर जलप्रपात के कारण उस पर जमी धूल आदि के साफ होने से वह ओर ज्यादा चमकने लगा। तिल मात्र भी खंडित नहीं हुआ। पुष्करावर्त मेघ को देखकर वह जोर से बोला-तुमने कहा-उसका क्या हुआ? वह मेघ लज्जित होकर चला गया। गा. ३३४ वृ. पृ. १०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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