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________________ ६९४ २८. भेरी द्वारिका नगरी में वासुदेव के पास तीन प्रकार प्रकार की भेरियां थीं - कौमुदिकी, सांग्रामिकी और दुर्भूतिकी । तीनों ही गोशीर्ष चन्दनमयी थी और देव परिगृहीत थी। वासुदेव के पास चौथी भेरी थी, जो अशिव का उपशमन करने में समर्थ थी। उसकी प्राप्ति का वृत्तान्त इस प्रकार है बृहत्कल्पभाष्यम् एक बार इन्द्र ने देव सभा में वासुदेव का गुणोत्कीर्तन करते हुए कहा - 'अहो ! कृष्ण सबके गुणों का ग्रहण करते हैं, किसी के अवगुण ग्रहण नहीं करते तथा अधम से युद्ध नहीं करते। देव सभा में उपस्थित एक देव ने इन्द्र के कथन पर विश्वास नहीं किया वह परीक्षा करने वासुदेव के पास आया। उस समय वासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि को वंदना करने के लिए प्रस्थित हो रहे थे। देवता मरे हुए सड़े-गले, दुर्गन्धयुक्त एक काले कुत्ते का रूप बनाकर मार्ग के पास लेट गया। उसकी दुर्गन्ध से पूरे स्कन्धावार ने मार्ग बदल दिया। तब वासुदेव ने पूछा तो बताया गया कि मार्ग के पास दुर्गन्धयुक्त कुत्ते का कलेवर पड़ा है इसलिए अन्य मार्ग से जा रहे हैं। वासुदेव ने मार्ग नहीं छोड़ा, वे उसी मार्ग पर चले । मार्ग में कुत्ते का कलेवर देखकर उन्होंने न मुंह ढंका और न मुंह बिगाड़ा। वे तत्काल बोले-काले वर्ण के कुत्ते पर सफेद वंतपंक्ति कितनी सुन्दर लग रही है। देवता ने सोचा- 'वास्तव में वासुदेव गुणग्राही हैं । ' उस देवता ने वासुदेव के अश्वरत्न का अपहरण कर लिया। शाम्ब आदि अनेक कुमार उसके पीछे दौड़े। देवता ने उन्हें हत-प्रतिहत कर दिया। तब वासुदेव स्वयं अश्वरत्न लेने गए। उस देवता से कहा- तुम अश्व ले जा रहे हो। देव बोला- यदि अश्व लेना चाहते हो तो पहले मुझे पराजित करो बासुदेव बोले-'ठीक है, पर हम युद्ध कैसे करें ? वह बोला 'पुएहिं' पुतयुद्ध । कृष्ण ने कहा- मैं अधम प्रकार का युद्ध नहीं करूंगा। मैं पराजित हुआ, तुम अश्व ले जाओ। देवता संतुष्ट हुआ और बोला- इन्द्र ने सत्य कहा, देव सभा की सारी वार्ता वासुदेव को बताई और वर मांगने को कहा। तब कृष्ण ने अशिवोपशमिनी भेरी मांगी। देवता ने भेरी दे दी। उसने कहा- जहां तक इस भेरी का शब्द सुनाई देगा, वहां तक छह मास तक कोई रोग पैदा नहीं होगा और पूर्व उत्पन्न रोग अतिशीघ्र ही नष्ट हो जायेगा। ऐसा बताकर वह अन्तर्धान हो गया। २९. भेरीपालक एक बार एक महर्द्धिक वणिक् भेरीपालक के पास आया। वह शिरोवेदना से पीड़ित था । वैद्य ने उसे गोशीर्ष चंदन लगाने को कहा। उसने भेरीपालक से कहा तुम बहु मूल्य ले लो और मुझे मेरी का एक टुकड़ा दे दो। उसने लोभ में आकर भेरी का टुकड़ा उसे दे दिया और भेरी के चन्दन का दूसरा टुकड़ा लगा दिया। अनेक बार ऐसे करने से भेरी कंथा बन गई फिर उसे बजाते तो रोग नष्ट नहीं होते। नगर में बहुत लोग रोग से पीड़ित हो गए। कृष्ण ने भेरी बजायी तो उसका शब्द सुनायी नहीं दिया। तब भेरी को देखा कि वह कंथा बनी हुई थी । तब कृष्ण ने सपरिवार भेरीपालक का शिरोच्छेद कर दिया। पुनः तेला कर देवाराधना की और भेरी प्राप्त कर उसकी रक्षा के लिए अन्य निर्लोभी भेरीपालक को रखा। Jain Education International गा. ३५७,३५८ वृ. पृ. १०७ For Private & Personal Use Only ३०. आभीर दंपति (१) एक आभीर अपनी पत्नी के साथ शकट में घी के घड़े लेकर नगर में बेचने गया । अन्य आभीर भी उसके साथ घी बेचने गए। आभीर गाड़ी के ऊपर और आभीरी गाड़ी के नीचे खड़ी थी। आभीर घी के घड़े उठाकर आभीरी को देता और वह उसे भूमि पर रख देती। लेने या देने में प्रमाद होने पर एक घड़ा हाथ से छूटा और फूट गया। आभीरी बोली- तुमने पहले घड़ा क्यों छोड़ा ? वह बोला- तुमने ठीक से पकड़ा क्यों नहीं ? दोनों एक दूसरे गा. ३५९ वृ. पृ. १०७ www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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