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गाथा संख्या विषय
६३८४
६३८५
राजपिंड के आठ प्रकार ।.
आठ प्रकार के राजपिंड में किसी भी प्रकार का राजपिंड ग्रहण करने से लगने वाले दोष ।
६३८६-६३८८ भिक्षार्थ गए हुए भिक्षु के ईश्वर आदि के निर्गमन और प्रवेश करते समय व्याघात के कारण तथा ईश्वर आदि पदों का तात्पर्य ।
६३८९-६३९७ राजभवन में भिक्षा के लिए जाने पर लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त विधि |
कृतिकर्म के दो प्रकार । श्रमण श्रमणियों को परस्पर करणीय।
श्रमणियों के लिए श्रमणों का कृतिकर्म करना क्यों आवश्यक ?
६३९८
६३९९
६४००,६४०१ साधु द्वारा साध्वी वन्दनीय क्यों नहीं ?
६४०२
६४०३
कौन-कौन से तीर्थंकरों के साधुओं का कल्प दुर्विशोध्य, दुरनुपाल्य और सुविशोध्य होता है ? ६४०४-६४०६ प्रथम तथा चरम तीर्थंकर के मुनियों पर अनुशासन करना कष्टप्रद क्यों ?
मध्यम तीर्थंकर के मुनियों पर अनुशासन करना सुगम क्यों ?
६४०७
पंचयाम धर्म के प्रवर्तक तथा चतुर्याम धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर ।
६४०८
६४०९
कृतिकर्मज्येष्ठ कौन ?
जिन स्थानों में उपस्थापन होती है, उन स्थानों का उल्लेख। उसके तीन आदेश ।
६४१०,६४११ पहले आदेश का स्वरूप । ६४१२,६४१३ दूसरे आवेश का स्वरूप। ६४१४
तीसरे आदेश का स्वरूप |
६४१५
६४१६
६४१७
६४१८
६४१९
उपस्थापना कब ?
मिथ्यादुष्कृत मात्र से मुनि की शुद्धि कब ? पुनः उपस्थापना किसको नहीं ?
मूलतः उपस्थापना कब ? किसको ?
क्षिप्तचित्त आदि के कारण षड्जीवनिकाय की विराधना करने पर गुरु के पास आलोचना
आवश्यक ।
६४२०
मूलच्छेद्य प्रायश्चित्त कैसे कराए ?
६४२१,६४२२ प्रायश्चित्त योग्य को अनुचित प्रायश्चित्त,
अप्रायश्चित्ती को प्रायश्चित्त तथा प्रायश्चित्ती को अतिमात्रा में प्रायश्चित्त देना मोक्ष मार्ग की विराधना का हेतु।
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गाथा संख्या
६४२३
६४२४
६४२५
विषय
सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त देने पर लगने वाले दोष । उन्मार्ग देशना से महामोह का बंधन |
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प्रतिक्रमणयुक्त धर्म किन किन तीर्थंकरों का होता है?
कौन से साधु गमनागमन आदि करते हुए नियमतः प्रातः सायं का प्रतिक्रमण करते हैं ? ६४२७-६४३० अतिचार न होने पर प्रतिक्रमण निरर्थक है। शिष्य की शंका | आचार्य द्वारा उदाहरण पूर्वक
६४२६
६४३१
६४३२
६४३३
६४३४
६४३७
६४३८
६४३५, ६४३६ मध्यम तीर्थंकरों के स्थविरकल्पी और जिनकल्पी मुनि तथा महाविदेह के स्थविरकल्पी और जिनकल्पी मुनि अस्थितकल्पी ।
स्थितकल्प और अस्थितकल्प विषयक मर्यादा में
६४३९
बृहत्कल्पभाष्यम्
६४४३
६४४४
६४४७
समाधान ।
मासकल्प के दो प्रकार । प्रत्येक के दो-दो प्रकार | पर्युषणाकल्प किसको और कितने प्रकार का होता है ?
पार्श्वस्थ आदि के स्थान का विवर्जन करने वाला मुनि शुद्ध ।
६४४०,६४४१ कैसे साधु के साथ संभोज का व्यवहार रखे ? ६४४२ स्थापनाकल्प के दो प्रकार तथा अकल्पिक से आहार ग्रहण करने और उसे देने का निषेध | शैक्षस्थापना कल्प का स्वरूप । उत्तरगुणकल्पिक का स्वरूप।
६४४५,६४४६ सदृशकल्पी आदि साधुओं के साथ संस्तव करने
तथा उनसे भक्तपान ग्रहण करने का निर्देश । परिहारकल्प का निरूपण तथा उसकी सामाचारी का आनुपूर्वी से कथन। कल्प के प्ररूपक कौन होते हैं ?
६४४८
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पर्युषणाकल्प का कालमान तथा किन तीर्थंकरों के स्थित और किन तीर्थंकरों के अस्थित होता है? पर्युषणाकल्प में व्यत्यास का कारण । प्रथम- चरम तीर्थंकरों के स्थविरकल्पी के पर्युषण कल्प का कालमान तथा ऋतुबद्ध का कालमान । अशिव आदि में हीनाधिक। जिनकल्पिक साधुओं के वही और ऋतुबद्धकाल में पर्युषणाकल्प की मर्यादा।
प्रमाद करने वाला पार्श्वस्थ ।
पार्श्वस्थ के स्थान की गवेषणा करने वाला असंविग्नविहारी।
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